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अष्टम शतक : उद्देशक-७
३३३ __ [१९ प्रतिवाद]—तब उन स्थविरों ने उन अन्यतीर्थिकों से यों कहा-"आर्यो ! हम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (कुचलते) नहीं, हनते नहीं, यावत् मारते नहीं। हे आर्यो ! हम गमन करते हुए काय (अर्थात्-शरीर के लघुनीति-बड़ीनीति आदि कार्य) के लिए, योग (अर्थात्-ग्लान आदि की सेवा) के लिए, ऋत (अर्थात् सत्य अप्कायादि-जीवसंरक्षणरूप संयम) के लिए एक देश (स्थल) से दूसरे देश (स्थल) में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं। इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, उनका हनन नहीं करते, यावत् उनको मारते नहीं। इसलिए पृथ्वीकायिक जीवों को नहीं दबाते हुए, हनन न करते हुए, यावत् नहीं मारते हुए हम त्रिविधत्रिविध संयत, विरत, यावत् एकान्तपण्डित हैं। किन्तु हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो।"
२०. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी–केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ?
[२० प्रतिप्रश्न]—इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा—"आर्यो ! हम किस कारण त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हैं ?"
२१. तए णं थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी–तुब्भेणं अजो ! रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेह जाव उवद्दवेह, तए णं तुब्भे पुढविं पेच्चमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह।
[२१ प्रत्युत्तर] तब स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से यों कहा-"आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हो, यावत् मार देते हो। इसलिए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए, यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असयंत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो।"
२२. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो ! गम्ममाणे अगते, वीतिक्कमिजमाणे अवीतिक्कंते रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते ?
[२२ प्रत्याक्षेप]—इस पर वे अन्यतीर्थिक उन स्थविर भगवन्तों से यों बोले—हे आर्यो ! तुम्हारे मत में गच्छन् (जाता हुआ), अगत (नहीं गया) कहलाता है; जो लांघा जा रहा है, वह नहीं लांघा गया, कहलाता है, और राजगृह को प्राप्त करने (पहुँचने) की इच्छा वाला पुरुष असम्प्राप्त (नहीं पहुँचा हुआ) कहलाता है।
२३. तए णं थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी–नो खलु अजो! अम्हं गम्ममाणे अगए, वीइक्कमिजमाणे अवीतिक्कंते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते, अम्हं णं अज्जो ! गम्ममाणे गए, वीतिक्कमिजमाणे वीतिक्कंते रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते, तुब्भं णं अप्पणा चेक गम्ममाणे अगए वीतिक्कमिज्जमाणे अवीतिक्कंते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते।
[२३ प्रतिवाद] —तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! हमारे मत में जाता हुआ (गच्छन्) अगत (नहीं गया) नहीं कहलाता, व्यतिक्रम्यमाण (उल्लंघन किया जाता