________________
३२२
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कपास आदि तन्तुओं को काटने, आग में डालने और जलाने का तथा नये धोए हुए वस्त्र को मंजीठ के रंग में डालने और रंगने का सयुक्तिक दृष्टान्त देकर आराधना के लिए उद्यत साधक को आराधक सिद्ध किया है।
आराधक, विराधक की व्याख्या-आराधक का अर्थ यहाँ मोक्षमार्ग का आराधक तथा भाव शुद्ध होने से शुद्ध है। जैसे कि मृत्यु को लेकर कहा गया है—आलोचना के सम्यक् परिणामसहित कोई साधु गुरु के पास आलोचनादि करने के लिए चल दिया है, किन्तु यदि बीच में ही वह साधु (आलोचना करने से पूर्व ही) रास्ते में काल कर गया, तो भी भाव से शुद्ध है। स्वयं आलोचनादि करने वाला वह साधु गीतार्थ होना सम्भव है।
तीन पाठ (गम)-(१) आहारग्रहणार्थ गृहस्थगृह-प्रविष्ट, (२) विचारभूमि आदि में तथा (३) ग्रामानुग्राम-विचरण में। जलते हुए दीपक और घर में जलने वाली वस्तु का निरूपण
१२. पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाति, लट्ठी झियाइ, वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाइ, दीपचंपए झियाइ, जोती झियाइ ?
गोयमा ! नो पदीवे झियाइ, जाव नो दीवचंपए झियाइ, जोती झियाइ।
[१२ प्र.] भगवन् ! जलते हुए दीपक में क्या जलता है ? क्या दीपक जलता है ? दीपयष्टि (दीवट) जलती है ? बत्ती जलती है ? तेल जलता है ? दीपचम्पक (दीपकं का ढक्कन) जलता है, या ज्योति (दीपशिखा) जलती है ?
। [१२ उ.] गौतम ! दीपक नहीं जलता, यावत् दीपक का ढक्कन भी नहीं जलता, किन्तु ज्योति (दीपशिखा) जलती है ?
१३. अगारस्सणं भंते ! झियायमाणस्स किं अगारे झियाइ, कुड्डा झियायंति, कडणा झियायंति, धारण झियायंति, बलहरणे झियाइ, वंसा झियायंति, मल्ला झियायंति, वग्गा झियायंति, छित्तरा झियायंति, छाणे झियाइ, जोती झियाइ ?
गोयमा ! नो अगारे झियाइ, नो कुड्डा झियायंति, जाव नो छाणे झियाइ जोती झियाइ।
[१३ प्र.] भगवन् ! जलते हुए घर (आगार) में क्या घर जलता है ? भीतें जलती हैं ? टाटी (खसखस आदि की टाटी या पतली दीवार) जलती हैं ? धारण (नीचे के मुख्य स्तम्भ) जलते हैं ? बलहरण (मुख्य स्तम्भ-धारण पर रहने वाली आडी लम्बी लकड़ी-बल्ली) जलता है ? बांस जलते हैं ? मल्ल (भीतों के आधारभूत स्तम्भ) जलते हैं ? वर्ग (बांस आदि को बांधने वाली छाल) जलते हैं ? छित्वर (बांस आदि को ढकने के लिए डाली हुई चटाई या छप्पर) जलते हैं ? छादन (छाण-दर्भादियुक्त पटल) जलता है, अथवा ज्योति (अग्नि) जलती है ?
[१३ उ.] गौतम ! घर नहीं जलता, भीतें नहीं जलती, यावत् छादन नहीं जलता, किन्तु ज्योति (अग्नि)
१. "आलोयणा-परिणाओ सम्मं संपट्ठिओ गुरुसगासे।
जइ मरइ अंतरे च्चिय तहावि सुद्धोत्ति भावाओ॥" - भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक ३७६