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अष्टम शतक : उद्देशक-६
[५] से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते! किं आराहए विराहए ?
गोया ! आहए, नो विराहए ।
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[ ७-५ प्र.] उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्क्षण आलोचनादि करके स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि करने हेतु प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुँच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि (वातादिदोषवश) मूक हो जाएँ, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ?
[ ७-५ उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं ।
[ ६-८ ] से य संपट्ठिए संपते अप्पणा य० ।
एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा जहेव असंपत्तेणं ।
[७-६,७,८] (उपर्युक्त अकृत्यसेवी मुनि स्वयं आलोचनादि करके स्थविरों की सेवा में पहुँचते ही स्वयं मूक हो जाए, (इसी तरह शेष दो विकल्प हैं- स्थविरों के पास पहुँचते ही वे स्थविर काल कर जाएँ, या स्थविरों के पास पहुँचते ही स्वयं निर्ग्रन्थ काल कर जाए;) जिस प्रकार असंप्राप्त (स्थविरों के पास न पहुँचे हुए) निर्ग्रन्थ के चार आलापक कहे गए है, उसी प्रकार सम्प्राप्त निर्ग्रन्थ के भी चार आलापक कहने चाहिए। यावत्- (चारों आलापकों में) यह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं ।
८. निग्गंथेण य बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खंतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे डिसेवि, तस एवं भवति इहेव ताव अहं० । एवं एत्थ वि, ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए।
[८] (उपाश्रय से) बाहर विचारभूमि ( नीहारार्थ स्थण्डिलभूमि) अथवा विहारभूमि ( स्वाध्यायभूमि) की ओर निकले हुए निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो, तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि 'पहले मैं स्वयं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करूं, यावत् यथार्ह प्रायश्चितरूप तप:कर्म स्वीकार कर लूँ, इत्यादि पूर्ववत् सारा वर्णन यहाँ कहना चाहिए । यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से असम्प्राप्ति और सम्प्राप्त दोनों के (प्रत्येक के स्थविरमूकत्व, स्वमूकत्व, स्थविरकालप्राप्ति, और स्वकाल प्राप्ति यों चार-चार आलापक होने से ) आठ आलापक कहने चाहिए। यावत् वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं; यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए।
९. निग्गंथेण य गामाणुगामं दूइजमाणेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति - इहेव ताव अहं० । एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वां जाव नो विराहए।
[९] ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए किसी निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्काल उसके मन में यह विचार स्फुरित हो कि 'पहले मैं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करूं; यावत् यहाँ भी पूर्ववत् आठ आलापक कहने चाहिए, यावत् वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं, यहाँ तक समग्र पाठ कहना चाहिए।
१०. [ १ ] निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे