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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में दोष रूप किसी अकार्य) स्थान (बात) का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, (आत्म-) निन्दा (पश्चाताप) और गर्दा करूं; (उसके अनुबंध का) छेदन करूं, इस (पाप-दोष से) विशुद्ध बनूँ, पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए अभ्युद्यत (प्रतिज्ञाबद्ध) होऊँ और यथोचित प्रायश्चितरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूँ। तत्पश्चात् स्थविरों के पास जाकर आलोचना करूंगा, यावत् प्रायश्चितरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूंगा, (ऐसा विचार कर) वह निर्ग्रन्थ, स्थविरमुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुआ; किन्तु स्थविरमुनियों के पास पहुँचने से पहले ही वे स्थविर (वातादिदोष के प्रकोप से) मूक हो जाएँ (बोल न सकें अर्थात् प्रायश्चित न दे सकें) तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक है ?
[७-१ उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं।
[२] से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुव्वामेव अमुहे सिया, से णं भंते ! किं आराहए, बिराहए?
गोयमा ! आराहए, नो विराहए।
[७-२ प्र.] (उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्काल स्वयं आलोचनादि कर लिया, यावत् यथायोग्य प्रायश्चितरूप तपःकर्म भी स्वीकर कर लिया,) तत्पश्चात् स्थविरमुनियों के पास (आलोचनादि करके यावत् तपःकर्म स्वीकार करने हेतु) निकला, किन्तु उनके पास पहुँचने से पूर्व ही वह निर्ग्रन्थ स्वयं (वातादि दोषवश) मूक हो जाए, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधकं है या विराधक ?
[७-२ उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। [३] से य संपट्ठिए, असंपत्ते थेरा य कालं करेजा, से णं भंते ! कि आराहए विराहए ? गोयमा ! आराहए, नो विराहए।
[७-६ प्र.] (उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ स्वयं आलोचनादि करके यथोचित प्रायश्चित्त रूप तप स्वीकार करके) स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि के लिए रवाना हुआ, किन्तु उसके पहुंचने से पूर्व ही वे स्थविर मुनि काल कर (दिवंगत हो) जाएँ, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक?
[७-३ उ.] गौतम ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं।
[४] से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुव्वामेव कालं करेजा, से णं भंते ! किं आराहए विराहए?
गोयमा ! आराहए, नो विराहए।
[७-४ प्र.] भगवन् ! (उपर्युक्त अकृत्य-सेवन करके तत्काल स्वयं आलोचनादि करके) वह निर्ग्रन्थ स्थविरों के पास आलोचनादि करने के लिए निकला, किन्तु वहाँ पहुँचा नहीं, उससे पूर्व ही स्वयं काल कर जाए तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ?
[७-४ उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं।