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अष्टम शतक : उद्देशक-६
३१५ देता है और साधु वैसी दुःसाध्य रोग या प्राणसंकट की परिस्थिति में अप्रासुक-अनेषणीय भी अपवादरूप में ले लेता है, बाद में प्रायश्चित लेकर शुद्ध होने की उसकी भावना है, तो ऐसी परिस्थिति में उक्त विवेकी श्रावक को 'बहुत निर्जरा और अल्प पाप' होता है। बिना ही कारण के यों ही अप्रासुक-अनेषणीय आहार साधु को देने वाले और लेने वाले दोनों का अहित है।' गृहस्थ द्वारा स्वयं या स्थविर के निमित्त कह कर दिये गये पिण्ड,पात्र आदि की उपभोगमर्यादा-प्ररूपणा
४. [१] निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपड़ियाए अणुपविठं केइ दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, एग थेराणं दलयाहि, से य तं पिंडं पडिग्गाहेजा, थेरा य से अणुगवेसियव्वा सिया, जत्थेव अणुगवेसमाणे हेरे पासिज्जा तत्थेवाऽणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुंजेजा, नो अन्नेसिं दावए, एगते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिले पडिलेहेत्ता, पमजित्ता परिट्ठावेतव्वे सिया।
[४-१] गृहस्थ के घर में आहर ग्रहण करने की (बहरने) की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पिण्ड (खाद्य पदार्थ) ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे—'आयुष्यमन् श्रमण' ! इन दो पिण्डों (दो लड्डू, दो रोटी या दो अन्य खाद्य पदार्थों) में से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना। (इस पर) वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और (स्थान पर आ कर) स्थविरों की गवेषणा करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे। यदि गवेषणा करने पर भी स्थविरमुनि कहीं न दिखाई दें (मिलें) तो वह पिण्ड स्वयं न खाए और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात (जहाँ आवागमन न हो,) अचित्त या बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके वहाँ (उस पिण्ड को) परिष्ठापन करे (परठ दे)।
[२]निग्गंथं च ण गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविठं केति तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजाएग आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि, से य ते पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसेयव्वा, सेसं तं चेव जाच परिट्ठावेयव्वे सिया।
[४-२] गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे—'आयुष्मन् श्रमण ! (इन तीनों मे से) एक पिण्ड आप स्वयं खाना और (शेष) दो पिण्ड स्थविर श्रमणों को देना।' (इस पर) वह निर्ग्रन्थ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले। तत्पश्चात् वह स्थविरों की गवेषणा करे। गवेषणा करने पर जहाँ उन स्थविरों को देखे, वहीं उन्हें वे दोनों पिण्ड दे दे। गवेषणा करने पर भी वह कहीं दिखाई न दें तो शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् स्वयं न खाए, परिष्ठापन करे (परठ दे)।
[३] एवं जाव दसहिं पिंडेहि उवनिमंतेजा, नवरं एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, नव थेराणं
१. "संथरणम्मि असुद्धं दोण्ह विगेण्हंतदितयाणऽहियं।
आउरदिळेंतेणं तं चेव हियं असंथरणे॥"
- भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३७३