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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र निर्जरा-लाभ, (२) तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक-अनेषणीय आहार देने वाले श्रमणोपासक को बहुत निर्जरालाभ और अल्प पापकर्म तथा (३) तथारूप, अविरत, आदि विशेषणयुक्त व्यक्ति को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय आहार देने से एकान्त पापकर्म की प्राप्ति, निर्जरालाभ बिल्कुल नहीं।
'तथारूप' का आशय-पहले और दूसरे सूत्र में 'तथारूप' का आशय है—जैनागमों में वर्णित श्रमण के वेश और चारित्रादि श्रमणगुणों से युक्त तथा तीसरे सूत्र में असंयत, अविरत आदि विशेषणों से युक्त जो 'तथारूप' शब्द है, उसका आशय यह है कि उस-उस अन्यतीर्थिक वेष से युक्त योगी, संन्यासी, बाबा आदि, जो असंयत, अविरत तथा पापकर्मों के निरोध और प्रत्याख्यान से रहित हैं, उन्हें गुरुबुद्धि से मोक्षार्थ आहारदान देने वाले का फल सूचित किया गया है।'
मोक्षार्थ दान ही यहाँ विचारणीय प्रस्तुत तीनों सूत्रों में निर्जरा के सद्भाव और अभाव की दृष्टि से मोक्षार्थ दान का ही विचार किया गया है। यही कारण है कि तीनों ही सूत्रपाठों में पडिलाभेमाणस्स' शब्द है, जो कि गुरुबुद्धि से-मोक्षलाभ की दृष्टि से दान देने के फल का सूचक है, अभावग्रस्त, पीड़ित, दुःखित, रोगग्रस्त या अनुकम्पनीय (दयनीय) व्यक्ति या अपने पारिवारिक, सामाजिक जनों को औचित्यादि रूप में देने में 'पडिलाभे' शब्द नहीं आता, अपितु वहाँ 'दलयइ' या 'दलेजा' शब्द आता है। प्राचीन आचार्यों का कथन भी इस सम्बंध में प्रस्तुत है
मोक्खत्थं जं, दाणं, पइ एसो विहि समक्खाओ।
अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं, न कयाइ पडिसिद्धं ॥ अर्थात्—यह (उपर्युक्त) विधि (विधान) मोक्षार्थ जो दान है, उसके सम्बंध में कही गई है, किन्तु अनुकम्पादान का जिनेन्द्र भगवन्तों ने कदापि निषेध नहीं किया है।
तात्पर्य यह है कि अनुकम्पापात्र को दान देने या औचित्यदान आदि के सम्बंध में निर्जरा की अपेक्षा यहाँ चिन्तन नहीं किया जाता है अपितु पुण्यलाभ का विशेषरूप से विचार किया जाता है।
'प्रासुक-अप्रासुक,' 'एषणीय-अनेषणीय' की व्याख्या-प्रासुक और अप्रासुक का अर्थ सामान्यतया निर्जीव (अचित्त) और सजीव (सचित्त) होता है तथा एषणीय का अर्थ होता है—आहार सम्बन्धी उद्गमादि दोषों से रहित-निर्दोष और अनेषणीय-दोषयुक्त-सदोष।' ___ 'बहुत निर्जरा, अल्पतर पाप' का आशय-वैसे तो श्रमणोपासक अकारण ही अपने उपास्य तथारूप श्रमण को अप्रासुक और अनेषणीय आहार नहीं देगा और न तथारूप श्रमण अप्रासुक और अनेषणीय आहार लेना चाहेंगे, परन्तु किसी अत्यन्त गाढ कारण के उपस्थित होने पर यदि श्रमणोपासक अनुकम्पावश तथारूप श्रमण के प्राण बचाने या जीवनरक्षा की दृष्टि से अप्रासुक और अनेषणीय आहार या औषध आदि दे १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पू. ३६०-३६१
(ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचनयुक्त) भा. ३, पृ. १३९४ २. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३७३-३७४
(ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ३, पृ. १३९५