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छट्ठो उद्देसओ : 'फासुगं'
छठा उद्देशक : 'प्रासुक' तथारूप श्रमण, माहन या असंयत आदि को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय आहार देने का श्रमणोपासक को फल :
१. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिजेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलाभमाणस्स किं कज्जति ?
गोयमा ! एगंतसो से निज्जरां कजइ, नत्थि य से पावे कम्मे कजति।
[१ प्र.] भगवन् ! तथारूप (श्रमण के वेष तथा तदनुकूल गुणों से सम्पन्न) श्रमण अथवा माहन को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ?
[१ उ.] गौतम ! वह (ऐसा करके) एकान्त रूप से निर्जरा करता है; उसके पापकर्म नहीं होता।
२. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिजेणं असण पाण जाव पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ?
गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कजइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ।
[२ प्र.] भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? .
[२ उ.] गौतम ! उसके बहुत निर्जरा होती है, और अल्पतर पापकर्म होता है।
३. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं अस्संजयअविरयपडिहयपच्चखायपावकम्मं फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा अणेसणिज्जेण वा असण-पाण जाव किं कज्जइ ?
गोयमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नत्थि से काई निजरा कजइ।
[३ प्र.] भगवन् ! तथारूप असयंत, अविरत, पापकर्मों का जिसने निरोध और प्रत्याख्यान नहीं किया; उसे प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अनेषणीय अशन-पानादि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या फल प्राप्त होता है ?
[३ उ.] गौतम ! उसे एकान्त पापकर्म होता है, किसी प्रकार की निर्जरा नहीं होती।
विवेचन तथारूप श्रमण, माहन या असंयत आदि को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय अनेषणीय आहार देने का श्रमणोपासक को फल— प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: तीन तथ्यों का निरूपण किया गया है— (१) तथारूप श्रमण या ब्राह्मण को प्रासुक-एषणीय आहार देने वाले श्रमणोपासक को एकान्ततः