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________________ ३१६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दलयाहि, सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेतव्वे सिया । [४-३] इसी प्रकार गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को यावत् दस पिण्डों को ग्रहण करने के लिए कोई गृहस्थ उपनिमंत्रण दे-' आयुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ड स्थविरों को देना;' इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना; यावत् परिष्ठापन करे (परठ दे) । ५. [१] निग्गंथं च णं गाहावइ जाव केइ दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा - एगं आउसो ! अप्पणा परिभुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि, से य तं पडिग्गाहेज्जा, तहेव जाव तं नो अप्पणा परिभुंजेज्जा, नो अन्नेसिं दावए । सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयव्वे सिया । [५-१] निर्ग्रन्थ यावत् गृहपति- कुल में प्रवेश करे और कोई गृहस्थ उसे दो पात्र (पतद्ग्रह) ग्रहण करने (बहरने) के लिए उपनिमंत्रण करे – 'आयुष्मन् श्रमण ! ( इन दोनों में से) एक पात्र का आप स्वयं उपयोग करना और दूसरा पात्र स्थविरों को दे देना।' इस पर वह निर्ग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर ले। शेष सारा वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए यावत् पात्र का न तो स्वयं उपयोग करे और न दूसरे साधुओं को दे; शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझना, यावत् उसे परठ दे। [२] एवं जावं दसहिं पडिग्गहेहिं । [५-२] इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिण्ड के समान कहना चाहिए। ६. एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया एवं गोच्छग-रयहरण- चोलपट्टग-कंबल-लट्टी-संथारगवत्तव्वया य भाणियव्वा जाव दसहिं संथारएहिं उवनिमंतेज्जा जाव परिट्ठावेयव्वे सिया । [६] जिस प्रकार पात्र के सम्बंध में वक्तव्यता कही, उसी प्रकार गुच्छक (पूंजनी), रजोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, (दण्ड) और संस्तारक ( बिछौना या बिछाने का लम्बा आसन - संथारिया ) की वक्तव्यता कहनी चाहिए, यावत् दस संस्तारक ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे, यावत् परठ दे, (यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए) । विवेचन—गृहस्थ द्वारा दिए गए पिण्ड, पात्र आदि की उपभोग-मर्यादा-प्ररूपणा — प्रस्तुत तीन सूत्रों में गृहस्थ द्वारा साधु को दिए गए पिण्ड, पात्र आदि के उपभोग करने की विधि बताई गई है। पर निष्कर्ष – गृहस्थ ने जो पिण्ड, पात्र, गुच्छक, रजोहरण आदि जितनी संख्या में जिसको उपभोग करने के लिए दिए हैं, उसे ग्रहण करने वाला साधु उसी प्रकार स्थविरों को वितरित कर दे, किन्तु यदि वे स्थविर ढूंढने न मिलें तो उस वस्तु का उपयोग न स्वयं करे और न ही दूसरे साधु को दे, अपितु उसे विधिपूर्वक परठ दे। परिष्ठापनविधि - किसी भी वस्तु को स्थण्डिल भूमि पर परिष्ठापन करने के लिए मूलपाठ में स्थण्डिल के ४ विशेषण दिये गए हैं— एकान्त, अनापात, अचित्त और बहुप्रासुक तथा उस पर परिष्ठापनविधि मुख्यतया दो प्रकार से बताई है— प्रतिलेखन और प्रमार्जन । स्थण्डिल – प्रतिलेखन - विवेक — परिष्ठापन के लिए स्थण्डिल कैसा होना चाहिए ? इसके लिए १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त), पृ. ३६१-३६२
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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