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अष्टम शतक : उद्देशक-२
२९१ मनःपर्यवज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए। केवलज्ञान का अन्तर नहीं होता। मति-अज्ञान और श्रुतअज्ञान का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक ६६ सागरोपम का है। विभंगज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल जितना) है।'
पांच ज्ञानी और तीन अज्ञानी जीवों का अल्पबहुत्व—पांच ज्ञान और तीन अज्ञान से युक्त जीवों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र में बताया गया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है-सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी हैं। क्योंकि मन:पर्यवज्ञान केवल ऋद्धिप्राप्त संयतों को ही होता है। उनसे असंख्यात गुणे अवधिज्ञानी हैं; क्योंकि अवधिज्ञानी जीव चारों गतियों में पाए जाते हैं। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों तुल्य और विशेषाधिक हैं। इसका कारण यह है कि अवधि आदि ज्ञान से रहित होने पर भी कई पंचेन्द्रिय और कितने ही विकलेन्द्रिय जीव (जिन्हें सास्वादनसम्यग्दर्शन हो) आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी का परस्पर साहचर्य होने से दोनों ज्ञानी तुल्य हैं। इन सभी से सिद्ध अनन्तगुणे होने से केवलज्ञानी जीव अनन्तगुणे हैं । तीन अज्ञानयुक्त जीवों में सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, क्योंकि विभंगज्ञान पंचेन्द्रियजीवों को ही होता है। उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एकेन्द्रियजीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं और वे अनन्त हैं, परस्पर तुल्य भी हैं, क्योंकि इन दोनों का परस्पर सहचर्य है।
ज्ञानी और अज्ञानी जीवों का परस्पर सम्मिलित अल्पबहुत्व—सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक और परस्पर तुल्य हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि देव और नारकों से मिथ्यादृष्टि देव-नारक असंख्यातगुणे हैं; उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष सभी जीवों से सिद्ध अनन्तगुणे हैं; उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुणे हैं और वे परस्पर तुल्य हैं; क्योंकि साधारण वनस्पतिकायिकजीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं, और वे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। बीसवें पर्यायद्वार के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान के पर्यायों की प्ररूपणा
१५६. केवतिया णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता आभिणिबोहियणाणपजवा पण्णत्ता। [१५६ प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय कितने कहे गए हैं ? [१५६ उ.] गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गए हैं।
१५७.[१] केवतिया णं भंते ! सुयनाणपज्जवा पण्णत्ता ? १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३६१
(ख) जीवाभिगमसूत्र (अन्तरदर्शक पाठ) सू. २६३. पृ. ४५५ (आगमो.) २. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३६२
(ख) प्रज्ञापनासूत्र तृतीय बहुवक्तव्यपद, सू. २१२,.३३४, पृ. ८० से १११ तक