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________________ २९० निरूपण किया गया है। ज्ञानी का ज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल —— ज्ञानी के दो प्रकार यहाँ बताए गए हैं—सादिअपर्यवसित और सादि सपर्यवसित। प्रथम ज्ञानी ऐसे हैं, जिनके ज्ञान की आदि तो है, पर अन्त नहीं। ऐसे ज्ञानी केवलज्ञानी होते है । केवलज्ञान का काल सादि-अनन्त है, अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होकर फिर कभी नष्ट नहीं होता । द्वितीय ज्ञानी ऐसा है, जिसकी आदि भी है, अन्त भी है। ऐसा ज्ञानी मति आदि चार ज्ञान वाला होता है । मति आदि चार ज्ञानों का काल सादि- सपर्यवसित है। इनमें से मति और श्रुत ज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक अन्तर्मुहूर्त है। अवधि और मनः पर्यवज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक समय है। आदि के तीनों ज्ञानों का उत्कृष्ट स्थितिकाल कुछ अधिक ६६ सागरोपम है। मनः पर्यवज्ञान का उत्कृष्ट स्थितिकाल देशोन पूर्वकोटी का है । अवधिज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक समय का इसलिए बताया है कि जब किसी विभंगज्ञानी को सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में ही विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इसके पश्चात् शीघ्र ही दूसरे समय में यदि वह अवधिज्ञान से गिर जाता है तब अवधिज्ञान केवल एक समय ही रहता है। मनःपर्यवज्ञानी का भी अवस्थितिकाल जघन्य एक समय इसलिए बताया है कि अप्रमत्तगुणस्थान में स्थित किसी संयत ( मुनि) को मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और तुरन्त ही दूसरे समय में नष्ट हो जाता है। मन:पर्यवज्ञानी का उत्कृष्ट अवस्थितिकाल देशोन पूर्वकोटी वर्ष का इसलिए बताया है कि किसी पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाले मनुष्य ने चारित्र अंगीकार किया। चारित्र अंगीकार करते ही उसे मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हो जाए और यावज्जीवन रहे, तो उसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून कोटिवर्ष घटित हो जाता है । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र त्रिविध अज्ञानियों का तद्रूप अज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल — अज्ञानी, मति - अज्ञानी और श्रुत - अज्ञानी ये तीनों स्थितिकाल की दृष्टि से तीन प्रकार के हैं - ( १ ) अनादि - अपर्यवसित (अनन्त), अभव्यों का होता है। (२) अनादि सपर्यवसित (सान्त), भव्यजीवों का होता है और (३) सादि-सपर्यवसित (सान्त), सम्यग्दर्शन से पतित होकर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल अनन्तकाल है, क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल व्यतीत कर अथवा वनस्पति आदि में अनन्त उत्सर्पिणी- असर्पिणी व्यतीत करके अनन्तकाल के पश्चात् पुनः सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। विभंगज्ञान का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय है; क्योंकि उत्पन्न होने के पश्चात् उसका दूसरे समय में विनष्ट होना सम्भव है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून पूर्वकोटी अधिक तेतीस सागरोपम का है, क्योंकि कोई मनुष्य कुछ कम पूर्वकोटी वर्ष तक विभंगज्ञानी बना रह कर सातवें नरक में उत्पन्न हो जाता है, उसकी अपेक्षा से यह कथन है। पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों का परस्पर अन्तरकाल — एक बार ज्ञान अथवा अज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाए और फिर दूसरी बार उत्पन्न हो तो दोनों के बीच का काल अन्तरकाल कहलाता है। यहाँ पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के अन्तर के लिए जीवाजीवाभिगमसूत्र का अतिदेश किया गया है। वहाँ इस प्रकार से अन्तर बताया गया है— आभिनिबोधिकज्ञान का काल से पारस्परिक अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक का या कुछ कम अपार्द्ध पुद्गलपरिवर्तन काल का है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३६१ (ख) प्रज्ञापनासूत्र १८ वां कायस्थितिपद (महावीर विद्यालय), पृ. ३०४-३१७
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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