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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ २८९ तीन अज्ञानों का विषय–मति-अज्ञानी मिथ्यादर्शनयुक्त अवग्रह आदि रूप तथा औत्पात्तिकी आदि बुद्धिरूप मति-अज्ञान के द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से जानता-देखता है। श्रुत-अज्ञानी श्रुत-अज्ञान (मिथ्यादृष्टि-परिगृहीत लौकिक श्रुत या कुप्रावचनिकश्रुत) से गृहीत (विषयीकृत) द्रव्यों को कहता है, बतलाता है, प्ररूपण करता है। विभंगज्ञानी विभंगज्ञान द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जानता है और अवधिदर्शन से देखता है।' ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण १५२. णाणी णं भंते ! 'णाणि' त्ति कालतो केवच्चिरं होती ? । गोयमा ! नाणी दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपजवसिए। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं सातिरेगाई। [१५२ प्र.] भगवन् ! ज्ञानी 'ज्ञानी' के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१५२ उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–सादि-अपर्यवसित और सादिसपर्यवसित । इनमें से जो सादि-सपर्यवसित (सान्त) ज्ञानी हैं, वे जघन्यतः अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्टत: कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक ज्ञानीरूप में रहते हैं। १५३. आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणिबोहियणाणी त्ति०? . एवं नाणी, आभिणिबोहियनाणी जाव केवलनाणी, अन्नाणी, मइअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी; एएसिं दसह वि संचिट्ठणा जहा कायठितीए।१७।। [१५३ प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है? [१५३ उ.] गौतम ! ज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् केवलज्ञानी, अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी, इन सब का अवस्थितिकाल (प्रज्ञापनासूत्र के अठारहवें) कायस्थितिपद में कहे अनुसार जानना चाहिए। (कालद्वार) १५४. अंतरं सव्वं जहा जीवाभिगमे। १८ । [१५४] इन सब (दसों) का अन्तर जीवाभिगमसूत्र के अनुसार जानना चाहिए। (अनन्तरद्वार) १५५. अप्पाबहुगाणि तिणि जहा बहुवत्तव्वत्ताए। १९। [१५५] इन सबका अल्पबहुत्व (प्रज्ञापनासूत्र के तृतीयः-) बहुवक्तव्यता पद के अनुसार जानना चाहिए। (अल्पबहुत्वद्वार) विवेचन—ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १५२ से १५५ तक) में (१७) कालद्वार, (१८) अन्तरद्वार और (१९) अल्पबहुत्वद्वार के माध्यम से ज्ञानी और अज्ञान के स्थितिकाल, पारस्परिक अन्तर और उनके अल्पबहुत्व का अतिदेशपूर्वक १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक ३५७ से ३६० तक (ख) नन्दीसूत्र, ज्ञानप्ररूपणा
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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