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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
समग्र लोक और लोक-सदृश असंख्येय खण्ड अलोक में हों तो उन्हें भी जान-देख सकता है। काल सेअवधिज्ञानी जघन्यतः आवलिका के असंख्यातवें भाग को तथा उत्कृष्तः असंख्यात उत्सपिँणी अवसर्पिणी अतीत, अनागत काल को जानता और देखता है। यहाँ क्षेत्र और काल को जानने का तात्पर्य यह है कि इतने क्षेत्र और काल में रहे हुए रूपी द्रव्यों जानता और देखता है। भाव से—अवधिज्ञानी जघन्यत: आधारद्रव्य अनन्त होने से अनन्त भावों को जानता-देखता है, किन्तु प्रत्येक द्रव्य के अनन्त भावों (पर्यायों) को नहीं जानता-देखता। उत्कृष्टतः भी वह अनन्त भावों को जानता-देखता है। वे भाव भी समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग-रूप जानने चाहिए।(४) मनःपर्यवज्ञान का विषय-मन:पर्यवज्ञान के दो प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति । सामान्यग्राही मनन-मति या संवेदन को ऋजुमतिमनःपर्यवज्ञान कहते हैं। जैसे 'इसने घड़े का चिन्तन किया है', इस प्रकार के अध्यवसाय का कारणभूत (सामान्य कतिपय पर्याय विशिष्ट) मनोद्रव्य का ज्ञान या ऋजु सरलमति वाला ज्ञान। द्रव्य से—ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानी ढाई द्वीप-समुद्रान्तवर्ती संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों द्वारा मनोरूप से परिणमित मनोवर्गणा के अनन्त परमाण्वात्मक (विशिष्ट एक परिणामपरिणत) स्कन्धों को मनःपर्यवज्ञानावरण की क्षयोपशमपटुता के कारण साक्षात् जानता देखता है। परन्तु जीवों द्वारा चिन्तित घटादिरूप पदार्थों को मनःपर्यायज्ञनी प्रत्यक्षतः नहीं जानता किन्तु उसके मनोद्रव्य के परिणामों की अन्यथानुपपत्ति से (इस प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन बिना घटित नहीं हो सकता, इस तरह के अन्यथानुपपत्तिरूप अनुमान से) जानता है। इसीलिए यहाँ 'जाणइ' के बदले 'पासइ' (देखता है) कहा गया है। विपुल का अर्थ है-अनेक विशेषग्राही। अर्थात् अनेक विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को 'विपुलमति-मनःपर्यवज्ञान' कहते हैं। जैसे—इसने घट का चिन्तन किया है, वह घट द्रव्य से-सोने का बना हुआ है, क्षेत्र से-पाटलीपुत्र का है, काल से—नया है या वसन्तऋतु का है, और भाव से बड़ा है, अथवा पीले रंग का है। इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्यों को विपुलमति जानता है। अर्थात्-ऋजुमति द्वारा देखे हुए स्कन्धों की अपेक्षा विपुलमति अधिकतर, वर्णादि से विस्पष्ट, उज्ज्वलतर
और विशुद्धतर रूप से जानता-देखता है। क्षेत्र से—ऋजुमति जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्टतः मनुष्यलोक में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है; जबकि विपुलमति उससे ढाई अंगुल अधिक क्षेत्र में रहे हुए जीवों के मनोगत भावों को विशेष प्रकार से विशुद्धतर रूप से-स्पष्ट रूप से जानता-देखता है। तात्पर्य यह है कि ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी क्षेत्र से उत्कृष्टतः अधोदिशा मेंरत्नप्रभापृथ्वी के उपरितन तल के नीचे के क्षुल्लक प्रतरों, ऊर्ध्वदिशा में-ज्योतिषी देवलोक के उपरितल को, तथा तिर्यग्दिशा में मनुष्यक्षेत्र में जो ढाई द्वीप-समुद्र हैं, १५ कर्मभूमियां हैं तथा छप्पन अन्तर्वीप हैं, उनमें रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति क्षेत्र से समग्र ढाई द्वीप व दो समुद्रों को विशुद्धरूप से जानता-देखता है। काल से—ऋजुमति जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने अतीत-अनागत काल को जानता-देखता है जबकि विपुलमति इसी को स्पष्टतररूप में निर्मलतर जानता-देखता है। भाव से ऋजुमति समस्त भावों के अनन्तवें भाग को जानता-देखता है, जबकि, विपुलमति इन्हें ही विशुद्धतर-स्पष्टरूप से जानता-देखता है।(५) केवलज्ञान का विषय केवलज्ञान के दो भेद हैंभवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान । केवलज्ञानी सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों को युगपत जानता-देखता है।