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अष्टम शतक : उद्देशक-२
२८७ कथन करता है, उन द्रव्यों को बतलाता है, उनकी प्ररूपणा करता है। इसी प्रकार क्षेत्र से और काल से भी जान लेना चाहिए। भाव की अपेक्षा श्रुत-अज्ञानी श्रुत-अज्ञान के विषयभूत भावों को कहता है, बतलाता है, प्ररूपित करता है।
१५१. विभंगणाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ?
गोयमा ! से समासतो चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो।दव्वतोणं विभंगनाणी विभंगणाणपरिगयाइं दव्वाइं जाणति पासति। एवं जाव भावतो णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणति पासति॥१६॥
[१५१ प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञान का विषय कितना कहा गया है ?
[१५१ उ.] गौतम! वह (विभंगज्ञान विषय) संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारद्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयगत द्रव्यों को जानता और देखता है। इसी प्रकार यावत् भाव की अपेक्षा, विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयगत भावों को जानता और देखता है।
(विषयद्वार) विवेचन–ज्ञान और अज्ञान के विषय की प्ररूपणा–प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १४४ से १५१ तक) में विषयद्वार के माध्यम से पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से विषय का निरूपण किया गया है।
ज्ञानों का विषय-(१) आभिनिबोधिकज्ञान का विषय द्रव्यादि चारों अपेक्षा से कहाँ तक व्याप्त है ? इस ज्ञान की सीमा द्रव्यादि की अपेक्षा कितनी है ? यही बताना यहाँ अभीष्ट है। द्रव्य का अर्थ हैधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य, क्षेत्र का अर्थ है-द्रव्यों का आधारभूत आकाश, काल का अर्थ है—द्रव्यों के पर्यायों की स्थिति और भाव का अर्थ है-औदयिक आदि भाव अथवा द्रव्य के पर्याय। इनमें से द्रव्य की अपेक्षा आभिनिबोधिकज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि सर्व द्रव्यों को आदेश से-ओघरूप (सामान्यरूप) से जानता है, उसका आशय यह है कि वह द्रव्यमात्र सामान्यतया जानता है, उसमें रही हुई सभी विशेषताओं से (विशेषरूप से) अथवा आदेश का अर्थ है-श्रुतज्ञानजनित संस्कार । इनके द्वारा अवाय और धारणा की अपेक्षा जानता है, क्योंकि ये दोनों ज्ञानरूप हैं तथा अवग्रह और ईहा दर्शनरूप हैं, इसलिए अवग्रह और ईहा से देखता है। श्रुतज्ञानजन्य संस्कार से लोकालोकरूप सर्वक्षेत्र को देखता है। काल से सर्वकाल को और भाव से औदयिक आदि पांच भावों को जानता है। (२) श्रुतज्ञानी (सम्पूर्ण दस पूर्वधर आदि श्रुतकेवली) उपयोगयुक्त होकर धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों को विशेषरूप से जानता है तथा श्रुतानुसारी अचक्षु (मानस) दर्शन द्वारा सभी अभिलाप्य द्रव्यों को देखता है। इसी प्रकार क्षेत्रादि के विषय में भी जानना चाहिए। भाव से उपयोगयुक्त श्रुतज्ञानी औदयिक आदि समस्त भावों को अथवा अभिलाप्य (वक्तव्य) भावों को जानता है। यद्यपि श्रुत द्वारा अभिलाप्य भावों का अनन्तवाँ भाग ही प्रतिपादित है, तथापि प्रसंगानुप्रसंग से अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के विषय हैं । इसलिए उनकी अपेक्षा 'श्रुतज्ञानी सर्वभावों को (सामान्यतया) जानता है ऐसा कहा गया है। (३) अवधिज्ञान का विषय-द्रव्य से-अवधिज्ञान जघन्यतः तैजस और भाषा द्रव्यों के अन्तरालवर्ती सूक्ष्म अनन्त पुद्गलद्रव्यों को जानता है। उत्कृष्ट बादर और सूक्ष्म सभी पुद्गल द्रव्यों को जानता है। अवधिदर्शन से देखता है। क्षेत्र से - अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है, उत्कृष्टतः