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अष्टम शतक : उद्देशक - २
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जीव हैं, उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के अतिरिक्त) और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। विकलेन्द्रियों में श्रोत्रेन्द्रियलब्धिवत् दो ज्ञान व दो अज्ञान पाए जाते हैं । चक्षुरिन्द्रियलब्धि - रहित जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा केवली होते हैं, एवं घ्राणेन्द्रियलब्धि-रहित जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और केवली होते हैं, उनमें से, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों में सास्वादनसम्यग्दर्शन के सद्भाव में पूर्व के दो ज्ञान और उसके अभाव में प्रथम के दो अज्ञान पाए जाते हैं । केवलियों में सिर्फ एक केवलज्ञान होता है। जिह्वेन्द्रियलब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान या तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। जिह्वेन्द्रियलब्धि-रहित जीव ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान और जो अज्ञानी हैं, वे एकेन्द्रिय हैं, उनमें (विभंगज्ञान के सिवाय) दो अज्ञान नियमत: होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में सास्वादनसम्यग्दर्शन का अभाव होने से उनमें ज्ञान नहीं होता । स्पर्शेन्द्रिय लब्धि और अलब्धि वाले जीवों का कथन, इन्द्रियलब्धि और अलब्धिवाले जीवों की तरह करना चाहिए। अर्थात् लब्धिमान् जीवों में चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) ओर तीन अज्ञान भजना से होते हैं और अलब्धिमान् जीव केवली होते हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान होता है।
दसवें उपयोगद्वार से लेकर पन्द्रहवें आहारकद्वार तक के जीवों में ज्ञान अज्ञान की प्ररूपणा ११८. सागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी, अण्णाणी ?
पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए ।
[११८ प्र.] भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं, या अज्ञानी ?
[११८ उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं, जो ज्ञानी होते हैं, उनमें पाँच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और जो अज्ञानी होते हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं।
११९. आभिणिबोहियनाणसाकारोवउत्ता णं भंते ! ० !
चत्तारि णाणाई भयणाए ।
[११९ प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान- साकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ?
[११९ उ.] गौतम ! उनमें चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं।
१२०. एवं सुयनाणसागरोवउत्ता वि ।
[१२०] श्रुतज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
१२१. ओहिनाणसागरोवउत्ता जहा ओहिनाणलद्धिया (सु. ९४ [१] ) ।
[१२१] अवधिज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन अवधिज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. ९४-१ के अनुसार) करना चाहिए ।
१२२. मणपज्जवनाणसागारोवजुत्ता जहा मणपज्जवनाणलद्धिया (सु. ९५ [१])।
[१२२] मनःपर्यवज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन मनः पर्यवज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३५० से ३५४ तक