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________________ २७६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि—जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद करके महाव्रतों का उपस्थान-आरोपण होता है, तदरूप अनुष्ठान-लाभ को छेदोपस्थापनीय-चारित्रलब्धि कहते हैं। यह दो प्रकार का है—निरतिचार और सातिचार। इनके कारण छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि के भी दो भेद हो जाते हैं । (३) परिहारविशुद्धिचारित्रलब्धि—जिस चारित्र में परिहार (तपश्चर्या-विशेष) से आत्मशुद्धि होती है, अथवा अनेषणीय आहारादि के परित्याग से विशेषत:आत्मशुद्धि होती है, उसे परिहार-विशुद्धचारित्र कहते हैं। इस चारित्र में तपस्या का कल्प अठारह मास में परिपूर्ण होता है। इसकी लम्बी प्रक्रिया है। निविश्यमानक और निर्विष्टकायिक के भेद से परिहारविशुद्धिचारित्र दो प्रकार का होने से परिहारविशुद्धि-चारित्रलब्धि भी दो प्रकार की है।(४) सूक्ष्मसम्परायचारित्रलब्धि—जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् सूक्ष्म (संज्वलन) लोभकषाय शेष रहता है, उसे सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहते हैं, ऐसे चारित्र के लाभ को सूक्ष्मसम्परायचारित्रलब्धि कहते हैं। इस चारित्र के विशुद्धयमान और संक्लि श्यमान ये दो भेद होने से सूक्ष्म-सम्परायचारित्रलब्धि भी दो प्रकार की है। (५) यथाख्यातचारित्रलब्धि-कषाय का उदय न होने से, अकषायी साधु का प्रसिद्ध चारित्र 'यथाख्यातचारित्र' कहलाता है। इसके स्वामियों के छद्मस्थ और केवली ऐसे दो भेद होने से यथाख्यातचारित्रलब्धि दो प्रकार की है। चारित्राचारित्रलब्धि का अर्थ है—देशविरतिलब्धि। यहाँ मूलगुण, उत्तरगुण तथा उसके भेदों की विवक्षा नहीं की है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणकषाय के क्षयोपशमजन्य परिणाममात्र की विवक्षा की गई है। इसलिए यह लब्धि एक ही प्रकार की है। दानादिलब्धियाँ : एक-एक प्रकार की—दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि तथा उपभोगलब्धि के भी दो भेदों की विवक्षा न करने से ये लब्धियाँ भी एक-एक प्रकार की कही गई हैं। वीर्यलब्धि–वीर्यन्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्रकट होने वाली लब्धि वीर्यलब्धि है। उसके तीन प्रकार हैं—(१) बालवीर्यलब्धि—जिससे बाल अर्थात् संयमरहित जीव की असंयमरूप प्रवृत्ति होती है, वह बालवीर्यलब्धि है। (२) पण्डितवीर्यलब्धि—जिससे संयम के विषय में प्रवृत्ति होती हो। (३) बालपण्डितवीर्यलब्धि-जिससे देशविरति में प्रवृत्ति होती हो, उसे बालपण्डितवीर्यलब्धि कहते हैं। ज्ञानलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा–ज्ञानलब्धिमान् जीव सदा ज्ञानी और अज्ञानलब्धिवाले (ज्ञानलब्धिरहित) जीव सदा अज्ञानी होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं, इसका कारण यह है कि केवली के आभिनिबोधिकज्ञान नहीं होता। मतिज्ञान की अलब्धि वाले जो ज्ञानी हैं, वे एकमात्र केवलज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञानयुक्त होते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञान की लब्धि और अलब्धि वाले जीवों के विषय में समझना चाहिए। अवधिज्ञान वालों में तीन ज्ञान (मति, श्रुत और अवधि) अथवा चार ज्ञान (केवलज्ञान को छोड़कर) होते हैं। अवधिज्ञान की अलब्धिवाले जो ज्ञानी होते हैं, उनमें दो ज्ञान (मति और श्रुत) होते हैं, या तीन ज्ञान (मति, श्रुत और मनःपर्यव ज्ञान होते हैं, या फिर एक ज्ञान (केवलज्ञान) होता है। जो अज्ञानी हैं, उनमें दो अज्ञान (मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान) या तीनों अज्ञान होते हैं। मन:पर्यावज्ञानलब्धि वाले जीवों में या तो तीन ज्ञान (मति, श्रुत और मन:पर्याय ज्ञान) या फिर ४ ज्ञान (केवलज्ञान को छोड़कर) होते हैं। मन:पर्यायज्ञान की अलब्धिवाले जीवों में जो ज्ञानी हैं, उनमें दो ज्ञान (मति और श्रुत) वाले, या तीन ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) वाले हैं, या फिर
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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