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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ २७५ (नवम द्वार समाप्त) विवेचन-लब्धिद्वार की अपेक्षा से ज्ञानी-अज्ञानी की प्ररूपणा–प्रस्तुत नवम द्वार-लब्धिद्वार के प्रारम्भ से पूर्व लब्धि के दस प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेद का कथन करके ज्ञानादिलब्धि में ज्ञानी-अज्ञानी की सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई है। लब्धि की परिभाषा–ज्ञानादि गुणों के प्रतिबन्धक उन ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षय या क्षयोपशम से आत्मा में ज्ञानादि गुणों की उपलब्धि (लाभ या प्रकट) होना लब्धि है। यह जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द भी है। लब्धि के मुख्य भेद-ज्ञानादि दस हैं। (१) ज्ञानलब्धि–ज्ञानावरणीकर्म के क्षय या क्षयोपक्षम से आत्मा में मतिज्ञानादि गुणों का लाभ होना। (२) दर्शनलब्धि-सम्यक्, मिथ्या या मिश्र श्रद्धानुरूप आत्मा का परिणाम प्राप्त होना दर्शनलब्धि है। (३) चारित्रलब्धि—चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयादि से होने वाला परिणाम चारित्रलब्धि है। (४) चारित्राचारित्रलब्धि-अप्रत्याख्यानी चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्मा का देशविरतिरूपपरिणाम चारित्राचरित्रलब्धि है।(५)दानलब्धि-दानान्तराय के क्षय या क्षयोपशम से होने वाली लब्धि । (६)लाभलब्धि-लाभान्तराय के क्षय अथवा क्षयोपशम से होने वाली लब्धि। (७) भोगलब्धि-भोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि को भोगलब्धि कहते हैं। (८) उपभोगलब्धि–उपभोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि उपभोगलब्धि है। (९) वीर्यलब्धिवीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से होने वाली लब्धि। (१०) इन्द्रियलब्धि-मतिज्ञाननावरण के क्षयोपशम से तथा जातिनामकर्म एवं पर्याप्तनामकर्म के उदय से होने वाली लब्धि। ज्ञानलब्धि–ज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयादि से आत्मा में ज्ञानगुण का लाभ प्रकट होना । ज्ञानलब्धि के ५ और इसके विपरीत अज्ञानलब्धि के तीन भेद बताये गए हैं। दर्शनलब्धि के तीन भेद : उनका स्वरूप (१) सम्यग्दर्शनलब्धि-मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से आत्मा में होने वाला परिणाम । सम्यग्दर्शन हो जाने पर मति-अज्ञान आदि भी सम्यग्ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। (२) मिथ्यादर्शनलब्धि—अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और कुगुरु में गुरुबुद्धिरूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान-मिथ्यात्व के अशुद्ध पुद्गलों के वेदन से उत्पन्न विपर्यासरूप जीव-परिणाम को मिथ्यादर्शनलब्धि कहते हैं। (३) सम्यग्मिथ्या (मिश्र) दर्शनलब्धि-मिथ्यात्व के अर्धविशुद्ध पुद्गल के वेदन से एवं मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न मिश्ररुचि-मिश्ररूप (किञ्चित अयथार्थ तत्त्वश्रद्धानरूप) जीव के परिणाम को सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि कहते हैं। ___ चारित्रलब्धि : स्वरूप और प्रकार—चारित्रमोहनीयकर्म के क्षयादि से होने वाले विरति-रूप परिणाम को, अथवा अन्य जन्म में गृहीत कर्ममल के निवारणार्थ मुमुक्षु आत्मा के सर्वसावधनिवृत्तिरूप परिणाम को चारित्रलब्धि कहते हैं।(१)सामायिकचारित्रलब्धि सर्वसावधव्यापार के त्याग एवं निरवद्यव्यापारसेवनरूपरागद्वेषरहित आत्मा के क्रियानुष्ठान के लाभ को सामायिकचारित्रलब्धि कहते हैं। सामायिक के दो भेद हैंइत्वरकालिक और यावत्कथिक। इन दोनों के कारण सामायिकचारित्रलब्धि के भी दो भेद हो जाते हैं। (२)
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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