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________________ २३६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (३) वैक्रियकाययोग-वैक्रियशरीर द्वारा होने वाली वीर्यशक्ति का व्यापार । यह मनुष्यों और तिर्यञ्चों के वैक्रियलब्धिबल से वैक्रियशरीर धारण कर लेने पर होता है। देवों और नारकों के वैक्रियकाययोग भवप्रत्यय' होता है। (४) वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग-वैक्रिय और कार्मण, अथवा वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को 'वैक्रियमिश्रकाययोग' कहते हैं। वैक्रिय और कामर्णसम्बन्धी वैक्रियमिश्रकाययोग देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक रहता है। वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों सम्बन्धी वैक्रियमिश्रकाययोग, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में तभी पाया जाता है, जब वे लब्धिबल से वैक्रियशरीर का आरम्भ करते हैं। वैक्रियशरीर का त्याग करने में वैक्रियमिश्र नहीं होता, किन्तु औदारिकमिश्र होता है। (५) आहारककाययोग-केवल आहारकशरीर की सहायता से होने वाला वीर्यशक्ति का व्यापार 'आहारककाययोग' है। (६) आहारकमिश्रकाययोग-आहारक और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को आहारकमिश्रकाययोग कहते हैं । आहारकशरीर को धारण करने के समय अर्थात् —उसे प्रारम्भ करने के समय तो आहारकमिश्रकाययोग होता है और उसके त्याग के समय औदारिकमिश्रकाययोग होता है। (७) कार्मणकाययोग-केवल कामर्णशरीर की सहायता से वीर्यशक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, उसे कार्मणकाययोग कहते हैं । यह योग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के समय अनाहारक अवस्था में सभी जीवों में होता है। केवलीसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली भगवान् के होता है। कार्मणकाययोग की तरह तैजसकाययोग इसलिए पृथक् नहीं माना कि तैजस और कार्मण दोनों का सदैव साहचर्य रहता है। वीर्यशक्ति का व्यापार भी दोनों का साथ-साथ होता है, इसलिए कार्मणकाययोग में ही तैजसकाययोग का समावेश हो जाता है। __ प्रयोग-परिणतःतीनों योगों द्वारा काययोग द्वारा मनोवर्गणा के द्रव्यों को ग्रहण करके मनोयोग द्वारा मनोरूप से परिणमाए हुए पुद्गल 'मनःप्रयोगंपरिणत' कहलाते हैं। काययोग द्वारा भाषाद्रव्य को ग्रहण करके वचनयोग द्वारा भाषारूप में परिणत करके, बाहर निकाले जाने वाले पदगल 'वचनप्रयोगपरिणत' कहलाते हैं। औदारिक आदि काययोग द्वारा ग्रहण किए हुए औदारिकादि वर्गणा के द्रव्यों को औदारिकादि शरीररूप में परिणमाए हों, उन्हें कायप्रयोगपरिणत' कहते हैं। आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ का स्वरूप—जीवों को प्राण से रहित कर देना 'आरम्भ' है, किसी जीव को मारने के लिए मानसिक संकल्प करना संरम्भ (सारम्भ) कहलाता है, जीवों को परिताप पहुँचाना समारम्भ कहलाता है। जीवहिंसा के अभाव को अनारम्भ कहते हैं। आरम्भसत्यमन:प्रयोग आदि का अर्थ आरम्भ कहते हैं जीवोपघात को, तद्विषयक सत्य-आरम्भसत्य
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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