________________
अष्टम शतक : उद्देशक-१
२३५ एक द्रव्य के परिणमन की प्ररूपणा–प्रस्तुत ३१ सूत्रों (सू. ४१ से ७९ तक) में मन, वचन और काय के विभिन्न विशेषणों और प्रकारों के माध्यम से एक द्रव्य के प्रयोगपरिणाम की, फिर मिश्रपरिणाम की और अन्त में वर्णादि की दृष्टि से विस्रसापरिणाम की अपेक्षा से प्ररूपणा की गई है।
प्रयोग की परिभाषा-मन, वचन और काय के व्यापार को 'योग' कहते हैं, अथवा वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में होने वाले परिस्पन्दन (कम्पन या हलचल) को भी योग कहते हैं, इसी योग को यहाँ प्रयोग' कहा गया है।
योगों के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप-आलम्बन के भेद से प्रयोग के तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। ये ही मुख्य तीन योग हैं। फिर इनके अवान्तर भेद क्रमशः इस प्रकार हैं, मनोयोगसत्यमनोयोग, असत्य (मृषा) मनोयोग, सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग और असत्यामृषा (व्यवहार) मनोयोग। वचनयोग-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, सत्यमृषा (मिश्र) वचनयोग, और असत्या मृषावचनयोग। काययोग-औदारिकयोग, औदारिकमिश्रयोग, वैक्रिययोग, वैक्रियमिश्रयोग, आहारकयोग, आहारकमिश्रयोग और कार्मणयोग । इस प्रकार ४ मनोयोग के, ४ वचनयोग के और ७ काययोग के यों कुल मिलाकर योग के १५ भेद हुए। इनका स्वरूप क्रमश: इस प्रकार है—(१)सत्यमनयोग-मन का जो व्यापार सत् (सज्जनपुरुषों या साधुओं या प्राणियों) के लिए हितकर हो, उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने वाला हो, अथवा सत्यपदार्थों या सातत्तत्वों (जीवादि तत्त्वों) के प्रति यथार्थ विचार हो। (२) असत्यमनयोग-सत्य से विपरीत अर्थात्संसार की तरफ ले जाने वाला, प्राणियों के लिए अहितकर विचार अथवा 'जीवादि तत्त्व नहीं हैं' ऐसा मिथ्याविचार ।(३) सत्यमृषामनोयोग-व्यवहार से ठीक होने पर भी जो विचार निश्चय से पूर्ण सत्य न हो। (४) असत्यामृषामनोयोग-जो विचार अपने आप में सत्य और असत्य दोनों ही न हो, केवल वस्तुस्वरूपमात्र दिखाया जाए। (५) सत्यवचनयोग, (६) असत्यवचनयोग, (७) सत्यमृषावचनयोग और (८) असत्यामृषावचनयोग, इनका स्वरूप मनोयोग के समान ही समझना चाहिए। मनोयोग में केवल विचारमात्र का ग्रहण है और वचनयोग में वाणी का ग्रहण है। वाणी द्वारा भावों को प्रकट करना वचनयोग है।
(१) औदारिकशरीरकाययोग-काय का अर्थ है—समूह । औदारिकशरीर पुद्गलस्कन्धों का समूह होने से काय है। इससे होने वाले व्यापार को औदारिकशरीरकाययोग कहते हैं।
(२)औदारिकमिश्रशरीरकाययोग-औदारिक के साथ कार्मण, वैक्रिय या आहारक शरीर की सहायता से होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं । यह योग उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिकशरीरधारी जीवों को होता है। वैक्रियलब्धिधारी मनुष्य
और तिर्यञ्च जब वैक्रियशरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिकमिश्रशरीर होता है। इसी तरह लब्धिधारी मुनिराज जब आहारक शरीर बनाते हैं, तब आहारकमिश्रकाययोग होता है, किन्तु जब वे आहारकशरीर से निवृत्त होकर मूल शरीरस्थ होते हैं, तब औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग होता है। केवली भगवान् जब केवली-समुद्घात करते हैं, तब दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्रकाययोग का प्रयोग होता है।