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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९ १९३ अर्थात्—'हे अर्जुन ! अनायास ही (युद्ध के कारण) स्वर्ग का द्वारा खुला हुआ है। सुखी क्षत्रिय ही ऐसे युद्ध करने का लाभ पाते हैं।' यदि युद्ध में मर गए तो मर कर स्वर्ग पाओगे और अगर विजयी बन गए तो पृथ्वी का उपभोग (राजा बन कर) करोगे। इसलिए हे कुन्तीपुत्र ! कृतनिश्चय हो करके युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' । प्रस्तुत सूत्र में वरुण नागनत्तुआ और उसके बालमित्र का उदाहरण प्रस्तुत करके भगवान् ने इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण कर दिया कि केवल संग्राम करने से या युद्ध में मरने से किसी को स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपित अज्ञानपूर्वक.तथा त्याग-व्रत-प्रत्याख्यान से रहित होकर असमाधिपर्वक मरने से प्रायः नरक या तिर्यंचगति ही मिलती है। अत: संग्राम करने वाले को संग्राम करने से अथवा उसमें मरने से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपितु न्यायपूवर्क संग्राम करने के बाद जो संग्रामकर्ता अपने दुष्कृत्यों के लिए पश्चाताप करता है, आलोचना, प्रतिक्रमण करके शुद्ध होकर समाधिपूर्वक मरता है, वही स्वर्ग जाता है।' वरुण की देवलोक में और उसके मित्र की मनुष्यलोक में उत्पत्ति और अन्त में दोनों की महाविदेह में सिद्धि का निरूपण २१. वरुणे णं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गते ? कहिं उववन्ने ? गोयमा ! सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। [२१ प्र.] भगवन् ! वरुण नागनत्तुआ मृत्यु के समय में कालधर्म पा कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ? . [२१ उ.] गौतम ! वह सौधर्मकल्प (देवलोक) में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। उस देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योपम की स्थिति (आयु) कही गई है। अत: वहाँ वरुण-देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है। २२. से णं भंते ! वरुणे देवे ताओ देवलोगातो आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं०? जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति। [२२ प्र.] भगवन् ! वह वरुण देव उस देवलोक से आयु-क्षय होने पर, भव-क्षय होने पर तथा स्थितिक्षय होने पर कहाँ जायेगा, कहाँ उत्पन्न होगा? [२२ उ.] गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। २३. वरुणस्स णं भंते णागणत्तुयस्स पियबालवयंसए कालमासं कालं किच्चा कहिं गते ! १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ३०७ का टिप्पण (ख) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा-१, पृ. २०३ (ग) भगवद्गीता अ. २, श्लो, ३२, ३७
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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