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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
बने हुए उसने सोचा-अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा। जब उसने वरुण नागनत्तुआ को रथमूसलसंग्राम-स्थल से बाहर निकलते हुए देखा, तो वह भी अपने रथ को वापिस फिरा कर रथमूसलसंग्राम से बाहर निकला, घोड़ों रोका और जहाँ वरुण नागनत्तुआ ने घोड़ो को रथ से खोलकर विसर्जित किया था, वहाँ उसने भी घोड़ों को विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ के संस्तारक को बिछा कर उस पर बैठा । दर्भसंस्तारक पर बैठकर पूर्वदिशा की ओर मुख करके यावत् दोनों हाथ जोड़ कर यों बोला- 'भगवन् ! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण नागनप्तृक के जो शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास हैं, वे सब मेरे भी हों', इस प्रकार कह कर उसने कवच खोला। कवच खोलकर शरीर में लगे हुए बाण को बाहर निकाला। इस प्रकार करके वह भी क्रमशः समाधियुक्त होकर कालधर्म को प्राप्त हुआ।
“[ १३ ] तए णं तं वरुणं नागणत्तुयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहितेहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे वुट्ठे, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाडिए, दिव्वे य गीयगंधव्वनिनादे कते यावि होत्था ।
[२०-१३] तदनन्तर उस वरुण नागनत्तुआ को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर निकटवर्ती वाणव्यन्तर देवों ने उस पर सुगन्धितजल की वृष्टि की, पांच वर्ण के फूल बरसाए और दिव्यगीत एवं गन्धर्व - निनाद भी किया ।
“[ १४ ] तए णं वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं दिव्व देवेड्ढि दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभागं सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ जाव परूवेति एवं खलु देवाणुप्पिया ! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो भवंति । "
[२०-१४] तब उस वरुण नागनत्तुआ की उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव को सुन कर और जान कर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे-'देवानुप्रियो ! संग्राम करते हुए बहुत-से मनुष्य मरते हैं, यावत् वे देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । '
विवेचन—' संग्राम में मृत्यु प्राप्त मनुष्य देवलोक में जाता है' इस मान्यता का खण्डन – प्रस्तु २० वें सूत्र में वरुण नागनत्तुआ का प्रत्यक्ष उदाहरण दे कर 'युद्ध में मरने वाले सभी देवलोक में जाते हैं' इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण और भ्रान्त धारणा का कारण अंकित किया है।
फलितार्थ — भगवान् महावीर के युग में एक मान्यता यह भी कि युद्ध में मरने वाले वीरगति पाने वाले-स्वर्ग में जाते हैं। इसी मान्यता की प्रतिच्छाया भगवद्गीता (अ. २, श्लोक ३२, ३७) में इस प्रकार से है — यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
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सुखिन: क्षत्रियाः पार्थ ! लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥३२॥ हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय ! युद्धाय कृतनिश्चयः ॥३७॥