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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९ १९१ भगवतो महावीरस्स अंतियं थूलए पाणातिवाते पच्चखाए जावज्जीवाए एवं जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाते जावजीवाए, इयाणिं पि णं अहं तस्सेव भगवतो महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणातिवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, एवं जहा खंदओ (स० २ उ० १ सु. ५०) जाव एतं पि णं चरिमेहिं उस्सास-णिस्सासेहिं 'वोसिरिस्सामि' त्ति कटु सन्नाहपटें मुयति, सन्नाहपटें मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगते। [२०-११] तत्पश्चात् उस पुरुष के गाढ़ प्रहार से सख्त घायल हुआ वरुण नागनप्तृक, अशक्त, अबल, अवीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम से रहित हो गया। अतः अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा' ऐसा समझकर उसने घोड़ों को रोका, घोड़ों को रोक कर रथ को वापिस फिराया और रथमूसलसंग्राम-स्थल से बाहर निकल गया। संग्राम स्थल से बाहर निकल कर एकान्त स्थान में आकर रथ को खड़ा किया। फिर रथ से नीचे उतर कर उसने घोड़ों को छोड़ कर विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ (डाभ) का संथारा (बिछौना) बिछाया और पूर्वदिशा की ओर मुँह करके दर्भ के संस्तारक पर पर्यंकासन से बैठा और दोनों हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहाअरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं, नमस्कार हो। मेरे धर्मगुरु, धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार हो, जो धर्म की आदि करने वाले यावत् सिद्धगति प्राप्त करने के इच्छुक हैं । यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ (दूर स्थान पर) रहे हुए भगवान् को वन्दन करता हूँ। वहाँ रहे हुए भगवान् मुझे देखें। इत्यादि कहकर यावत् उसने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा—पहले मैंने श्रमण भगवान् महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान किया था, यावत् स्थूल परिग्रह का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान किया था, किन्तु अब मैं उन्हीं अरिहन्त भगवान् महावीर के पास (साक्षी से) सर्व प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान करता हैं। इस प्रकार स्कन्दक की तरह (अठारह ही पापस्थानों का सर्वथा प्रत्याख्यान कर दिया)। फिर इस शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ व्युत्सर्ग (त्याग) करता हूँ, यों कह कर उसने सन्नाहपट (कवच) खोल दिया। कवच खोल कर लगे हुए बाण को बाहर खींचा । बाण शरीर से बाहर निकाल कर उसने आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और समाधियुक्त-होकर मरण प्राप्त किया। "[१२] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे पियबालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले जाव अधारणिज्जमिति कटु वरुणं नागनत्तुयं रहमुसलातो संगामातो पडिनिक्खममाणं पासति, पासित्ता तुरए निगिण्हति, तुरए निगिण्हित्ता जहा वरुणे नागनत्तुए जाव तुरए विसजेति, विसजित्ता दब्भसंथारगं दुरुहति, दब्भसंथारगं दुरुहित्ता पुरत्थाभिगुहे जाव अंजलि कटु एवं वदासी-जाइंणं भंते ! मम पियवालवयस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स सीलाई वताइं गुणाई वेरमणाई पच्चक्खाणपोसहोववासाइं ताई णं मम पि भवंतु त्ति कटु सन्नाहपटें मुयइ, सन्नाहपटं मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुव्वीए कालगते। [२०-१२] उस वरुण नागनत्तुआ का एक प्रिय बालमित्र भी रथमूसलसंग्राम में युद्ध कर रहा था। वह भी एक पुरुष द्वारा प्रबल प्रहार करने से घायल हो गया। इससे अशक्त, अबल, यावत् पुरुषार्थ-पराक्रम से रहित
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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