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और ताप देने वाले अचित्त प्रकाशमान पुद्गलों की प्ररूपणा २०३, सचित्तवत् अचित्त तेजस्काय के पुद्गल २०४, कालोदायी द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिपूर्वक निर्वाणप्राप्ति २०४ ।
अष्टम शतक
प्राथमिक
अष्टम शतकगत दस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय अष्टम शतक की संग्रहणी गाथा
२०५-४२२
२०५
२०७
प्रथम उद्देशक - पुद्गल ( सूत्र २-९१)
२०७-२४४
पुद्गलपरिणामों के तीन प्रकारों का निरूपण २०७, परिणामों की दृष्टि से तीनों पुद्गलों का स्वरूप २०७, मिश्रपरिणत पुद्गलों के दो रूप २०७, नौ दण्डकों द्वारा प्रयोग- परिणत पुद्गलों का निरूपण २०८, विवक्षाविशेष से नौ दण्डक ( विभाग ) २२२, द्वीन्द्रियादि जीवों की अनेकविधता २२३, पंचेन्द्रिय जीवों के भेद - प्रभेद २२३, कठिन शब्दों के विशेष अर्थ २२३, मिश्र - परिणत - पुद्गलों का नौ दण्डकों द्वारा निरूपण २२४, विस्रसा- परिणतः पुद्गलों के भेद-प्रभेद का निर्देश २२५, प्रयोग की परिभाषा २३५, योगों के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप २/३५, प्रयोग परिणतः तीनों द्वारा २३६, आरम्भ सरम्भ और समारम्भ का स्वरूप २३६, आरम्भ सत्यमनः प्रयोग आदि का अर्थ २३६, दो द्रव्य सम्बन्धी प्रयोग - मिश्र - विस्रसा परिणत पदों के मनोयोग आदि के संयोग से निष्पन्न भंग २३७, प्रयोगादि तीन पदों के छह भंग २३९, विशिष्ट - मनः प्रयोग- परिणत के पांच सौ चार भंग २३९, पूर्वोक्त विशेषणयुक्त वचनप्रयोगपरिणत के भी ५०४ भंग २३९, औदारिक आदि
प्रयोगपरिणत के १९६ भंग २३९, सत्यमन: प्रयोग- परिणत आदि के भंग २४१, मिश्र और विस्रसापरिणत भंग २४१, चार आदि द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोगादिपरिणत पदों के संयोग से निष्पन्न भंग २४१, चार द्रव्यों सम्बन्धी प्रयोग- परिणत आदि तीन पदों के भंग २४३, पंच प्रव्य सम्बन्धी और पांच से आगे के भंग २४३, परिणामों की दृष्टि से पुद्गलों का अल्पबहुत्व २४३, सबसे कम और सबसे अधिक पुद्गल
२४४ ।
द्वितीय उद्देशक - आशीविष (सूत्र १ - १६ )
२४५ - २९४
आर्शीविष : दो मुख्य प्रकार और उनके अधिकारी तथा विष- सामर्थ्य २४५, आशीविष और उसके प्रकारों का स्वरूप २४९, जाति- आशीविषयुक्त प्राणियों का विषसामर्थ्य २५०, छद्मस्थ द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के अविषय और केवली द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के विषयभूत दस स्थान २५०, छद्मस्थ का प्रसंगवश विषेश अर्थ २५१, ज्ञान और अज्ञान के स्वरूप तथा भेद - प्रभेद का निरूपण २५१, पांच ज्ञानों का स्वरूप २५३, आभिनिबोधिकज्ञान के चार प्रकारों का स्वरूप २५३, अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह का स्वरूप २५४, अवग्रह आदि की स्थिति और एकार्थक नाम २५४, श्रुतादि ज्ञानों के भेद २५४, मति- अज्ञान आदि का स्वरूप और भेद २५४, ग्रामसंस्थित आदि का स्वरूप २५४, औधिक चौवीस दण्डकवर्ती तथा सिद्ध जीवों में ज्ञान - अज्ञान- प्ररूपणा २५४, नैरयिकों में तीन ज्ञान नियमत:, तीन अज्ञान भजनातः २५७, तीन विकलेन्द्रिय जीवों में दो ज्ञान २५७, गति आदि आठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी- अज्ञानी - प्ररूपणा २५७, गति आदि द्वारों के माध्यम से जीवों में ज्ञानीअज्ञानी की प्ररूपणा २६४, नौवें लब्धिद्वार की अपेक्षा से ज्ञानी- अज्ञानी की प्ररूपणा २६६, लब्धि की परिभाषा
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