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कैसे और कब ? १५६, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के साता-असातावेदनीय कर्मबंध और उनके कारण १५६, दुःषम-दुःषमकाल में भारतवर्ष, भारतभूमि एवं भारत के मनुष्य के आचार (आकार) और भाव का स्वरूपनिरूपण १५८, छठे आरे के मनुष्यों के आहार तथा मनुष्य-पशु-पक्षियों के आचारादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन १६१। सप्तम उद्देशक-अनगार (सूत्र १-२८)
१६४-१७३ संवृत एवं उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले अनगार को लगने वाली क्रिया की प्ररूपणा १६४, विविध पहलुओं से काम-भोग एवं कामी-भोगी के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा १६५, क्षीणभोगी छद्मस्थ अधोऽवधिक परमावधिक एवं केवली मनष्यों में भोगित्व-प्ररूपणा १६९. भोग भोगने में असमर्थ होने से ही भोगत्यागी नहीं १७१, असंज्ञी और समर्थ (संज्ञी) जीवों द्वारा अकामनिकरण और प्रकाम निकरण वेदन का सयुक्तिक निरूपण १७१, असंज्ञी और संज्ञी द्वारा अकाम-प्रकाम निकरण वेदन क्यों और कैसे ? १७३ । अष्टम उद्देशक-छद्मस्थ (सूत्र १-९)
१७४-१७८ संयमादि छद्मस्थ के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का निषेध १७४, हाथी और कुंथुए के समान जीवत्व की प्ररूपणा १७४, राजप्रश्नीयसूत्र में समान जीवत्व की सदृष्टान्त प्ररूपणा १७५, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसकी निर्जरा सुखरूप १७५, संज्ञाओं के दस प्रकार-चौवीस दण्डकों में १७६, संज्ञा की परिभाषाएँ १७६, संज्ञाओं की व्याख्या १७६, नैरयिकों के सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ १७७, हाथी और कुंथुए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा १७७, आधाकर्मसेवी साधु को कर्मबन्धादि निरूपणा १७७ । नवम उद्देशक-असंवृत (सूत्र १-१४)
१७९-१९४ असंवृत अनगार द्वारा इहगत बाह्यपुद्गलग्रहण पूर्वक विकुर्वण-सामर्थ्य-निरूपण १७९, ‘इहगए' "तत्थगए' एवं 'अन्नत्थगए' का तात्पर्य १८०, महाशिलाकण्टकसंग्राम में जय-पराजय का निर्णय १८१, महाशिलाकण्टकसंग्राम के लिए कूणिक राजा की तैयारी और अठारह गणराजाओं पर विजय का वर्णन १८१, महाशिलाकण्टकसंग्राम उपस्थित होने के कारण १८३, महाशिलाकण्टकसंग्राम में कूणिक की जीत कैसे हुई ? १८४, महाशिलाकण्टकसंग्राम के स्वरूप, उसमें मानवविनाश और उनकी मरणोत्तर गति का निरूपण १८४, रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का तथा उसमें मृत मनुष्यों की संख्या, गति आदि का निरूपण १८५, ऐसे युद्धों में सहायता क्यों ?१८७ संग्राम में मृत मनुष्य देवलोक में जाता है', इस मान्यता का खण्डनपूर्वक स्वसिद्धान्त-मंडन १८७, वरुण की देवलोक.में और उसके मित्र की मनुष्यलोक में उत्पत्ति और अंत में दोनों की महाविदेह में सिद्धि का निरूपण १९३ । दशम उद्देशक-अन्याथिक (सूत्र १-२२)
१९५-२०४ अन्यतीर्थिक कालोदायी की पंचास्तिकाय-चर्चा और सम्बुद्ध होकर प्रव्रज्या स्वीकार १९५, कालोदयी के जीवन-परिवर्तन का घटनाचक्र १९९, जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमश: पाप-कल्याण-फलविपाक संयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण १९९, अग्निकाय को जलाने और बुझाने वालों में से महाकर्म और अल्पकर्मादि से संयुक्त कौन और क्यों ?२०२, अग्नि जलाने वाला महाकर्म आदि से युक्त क्यों ? २०३, प्रकाश
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