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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६ १६१ विवेचन—दुःषमदुःषमकाल में भारतवर्ष,भारत-भूमि एवं भारत के मनुष्यों के आचार(आकार) और भाव का स्वरूप-निरूपण—प्रस्तुत सूत्र में विस्तार से अवसर्पिणी के छठे आरे के दुःषमदुःषमकाल में भारतवर्ष के, भारतभूमि की, एवं भारत के मनुष्यों के आचार-विचार एवं आकार तथा भावों के स्वरूप का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष छठे आरे में भरतक्षेत्र की स्थिति अत्यन्त संकटापन्न, भयंकर, हृदय-विदारक, अनेक रोगोत्पादक, अत्यन्त शीत, ताप, वर्षा आदि से दुःसह्य एवं वनस्पतिरहित नीरस सूखी-रूखी भूमि पर निवास के कारण असह्य होगी भारतभूमि अत्यन्त गर्म, धूलभरी, कीचड़ से लथपथ एवं जीवों के चलने में दुःसह होगी। भारत के मनुष्यों की स्थिति तो अत्यन्त दुःखद, असह्य, कषाय से रंजित होगी। विषम-बेडौल अंगों से युक्त होगी। कठिन शब्दों के विशेष अर्थ—उत्तमकट्ठपत्ताए–उत्कट अवस्था-पराकाष्ठा या परमकष्ट को प्राप्त । दुव्विसहा–दुःसह, कठिनाई से सहन करने योग्य । वाउल-व्याकुल। वायासंवट्टगा य वाहिति—संवर्तक हवाएँ चलेंगी। धूमाहिति-धूल उड़ती होने से। रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा—रज से मलिन होने से अंधकार के पटल जैसी,नहीं दिखाई देने वाली। चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउरं वासं वासिहिंतिप्रचण्ड हवाओं से टकराकर अत्यन्त तीक्ष्ण धारा के साथ गिराने से प्रचुर वर्षा बरसाएँगे। डोंगर—छोटे पर्वत । दुणिक्कमा–दुर्निक्रम मुश्किल से चलने योग्य । अणादेजवयणा—जिनके वचन स्वीकर करने योग्य न हों। मज्जायतिक्कमप्पहाणा मर्यादा का उल्लंघन करने में अग्रणी। गुरुनियोगविणयरहिता—गुरुजनों के आदेश का पालन एवं विनय से रहित । फुट्टसिरा—खड़े या बिखरे केशों वाले । कविल-पलियकेसाकपिल (पीले) एवं पलित (सफेद) केशों वाले। उब्भडघडमुहा—उद्भट-(विकराल) घटमुख जैसे मुखवाले। वंकवलीविगतभेसणमुहा—टेढ़े-मेढ़े झुर्रियों से व्याप्त (विकृत) भीषण-भुख वाले। कच्छूकसराभिभूताकक्छू (पाँव) के कारण खाज-खुजली से आक्रान्त । टोलगति—ऊँट के समान गति वाले, अथवा ऊँट के समान बेडौल आकृति वाले। खलंतबिब्भलगती-स्खलनयुक्त विह्वल गति वाले। ओसन्नं—बहुलता से, प्रायः। णिगोदा—कुटुम्ब । पुत्त-णत्तुपरियालपणयबहुला–पुत्र-नाती आदि परिवार वाले एवं उनके परिपालन में अत्यन्त ममत्व वाले। छठे आरे के मनुष्यों के आहार तथा मनुष्य-पक्षी-पक्षियों के आचारादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन ३४. ते णं भंते ! मणुया कमाहारमाहारेहिंति ? गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगा-सिधूओ महानदीओ रहपहवित्थाराओ अक्खसोतप्पमाणामित्तं जलं वोज्झिहिंति, से वि य णं जले बहुमच्छ-कच्छभाइण्णे णो चेव णं आउबहुले १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग-१, पृ. २९३-२९४
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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