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देव की एक वर्णादि के पुद्गलों का अन्य वर्णादि में विकुर्वण एवं परिणमन-सामर्थ्य ९२, विभिन्न वर्णादि के २५ आलापक सूत्र ९५, पांच वर्षों के १० द्विकसंयोगी आलापक सूत्र ९५, दो गंध का एक आलापक ९५, पांच रस के दस आलापक सूत्र ९५, आठ स्पर्श के चार आलापक सूत्र ९५, अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या युक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले देवादि को जानने-देखने की प्ररूपणा ९५, तीन पदों के बारह विकल्प ९८ । दशम उद्देशक-अन्यतीर्थी (सूत्र १-१५)
९९-१०५ अन्यतीर्थिक-मतनिराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्व जीवों के सुख-दुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपणा ९९, दृष्टान्त द्वारा स्वमत-स्थापना १००, जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बंध में अनेकान्त शैली में प्रश्नोत्तर १००, दो बार जीव शब्दप्रयोग का तात्पर्य १०२, जीव कदाचित् जीता है, कदाचित् नहीं जीता, इसका तात्पर्य १०२, एकान्त दु:खवेदन रूप अन्यतीर्थिक मत निराकरणपूर्वक अनेकान्तशैलीसे सुख-दुःखादि वेदन-प्ररूपणा १०२, समाधान का स्पष्टीकरण १०३, चौवीस दण्डकों में आत्म-शरीरक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलाहार प्ररूपणा १०४, केवली भगवान् का आत्मा द्वारा ज्ञान-दर्शन सामर्थ्य १०४, दसवें उद्देशक की सग्रहणी गाथा १०५।
सप्तम शतक
१०६-२०४ प्राथमिक
१०६ सप्तम शतकगत दस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय सप्तम शतक की संग्रहणी गाथा
१०८ प्रथम उद्देशक-आहार (सूत्र २-२०)
१०८-१२३ जीवों के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल की प्ररूपणा १०८, परभवगमनकाल में आहाराकअनाहाराक रहस्य १०९, सर्वाल्पाहारता : दो समय में ११०, लोक के संस्थान का निरूपण ११०, लोक का संस्थान ११०, श्रमणोपाश्रय में बैठकर सामायिक किये हुए श्रमणोपाक को लगने वाली क्रिया १११, साम्परायिक क्रिया लगने का कारण १११, श्रमणोपासक के व्रत-प्रत्याख्यान में अतिचार लगने की शंका का समाधान ११२, अहिंसाव्रत में अतिचार नहीं लगता ११२, श्रमण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक . को लाभ ११३, चयति क्रिया के विशेष अर्थ ११३, दानविशेष से बोधि और सिद्धि की प्राप्ति ११४, नि:संगतादि कारणों से कर्मरहित (मुक्त) जीव की (ऊर्ध्व) गति-प्ररूपणा ११४, अकर्म जीव की गति के छह कारण ११६, दु:खी को दुःख की स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपणा ११८, दुःखी और अदुःखी की मीमांसा ११८, उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुत्तिक निरूपण ११८, 'वोच्छिन्ना' शब्द का तात्पर्य ११९, 'अहासुत्तं' और 'उस्सुत्तं' का तात्पर्यार्थ ११९, अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त तथा क्षेत्रातिक्रान्तिदि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ ११९, अंगारादि दोषों का स्वरूप १२२, क्षेत्रातिक्रान्त का भावार्थ १२३, कुक्कुटी-अण्ड प्रमाण का तात्पर्य १२३, शस्त्रातीतादि की शब्दश: व्याख्या १२३, नवकोटि-विशुद्ध का अर्थ १२३, उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोष १२३ ।
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