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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१६-२] तिर्यंचसंसारसंस्थानकाल के दो भेदों में से सबसे कम अशून्यकाल है और उसकी अपेक्षा मिश्रकाल अनन्तगुणा है।
[३] मणुस्स-देवाण य जहा नेरइयाणं।
[१६-३] मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल की न्यूनाधिकता (अल्पबहुत्व) नारकों के संसारसंस्थानकाल की न्यूनाधिकता के समान ही समझनी चाहिए।
१७. एयस्स णं भंते! नेइरयसंसारसंचिट्ठणकालस्स जाव देवसंसारसंचिट्ठण जाव विसेसाधिए वा?
गोयमा! सव्वत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, देवसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले अणंतगुणे।
[१७-प्र.] भगवन् ! नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों के संसारसंस्थानकालों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ?
[१७-उ.] गौतम! सबसे थोड़ा मनुष्य संसारसंस्थानकाल है, उससे नैरयिक संसारसंस्थानकाल असंख्यातगणा है. उससे देव संसारसंस्थानकाल असंख्यातगणा है और उससे तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल अनन्तगुणा है।
विवेचन-चारों गतियों के जीवों का संसारसंस्थानकाल : भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्वप्रस्तुत पांच सूत्रों (१३ से १७ तक) में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों प्रकार के जीवों के संसारसंस्थानकाल, उसके भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है।
संसारसंस्थानकाल सम्बन्धी प्रश्न का उद्भव क्यों-किसी की मान्यता है कि पशु मर कर पशु ही होता है, और मनुष्य मर कर मनुष्य, वह देव या नारक नहीं होता। जैसे-गेहूँ से गेहूँ ही उत्पन्न होता है, चना नहीं। हाँ, अच्छी-बुरी भूमि के मिलने से गेहूँ अच्छा-बुरा हो सकता है, इसी प्रकार अच्छे-बुरे संस्कारों के मिलने से मनुष्य अच्छा-बुरा भले ही हो जाए; किन्तु रहता है मनुष्य ही। इस प्रकार की मान्यतानुसार अनादिभवों में भी जीव एक ही प्रकार से रहता है। इस भ्रान्तमत का निराकरण करने हेतु गौतम स्वामी ने यह प्रश्न उठाया है कि वह जीव अनादिकाल से एक योनि से दूसरी योनि में भ्रमण कर रहा है, तो अतीतकाल में जीव ने कितने प्रकार का संसार बिताया है ?
संसारसंस्थानकाल-संसार का अर्थ है-एक भव (जन्म) से दूसरे भव में संसरण-गमन रूप क्रिया। उसकी संस्थान-स्थित रहने रूप क्रिया तथा उसका काल (अवधि) संस्थानकाल है। अर्थात्-यह जीव अतीतकाल में कहाँ-कहाँ किस-किस गति में कितने काल तक स्थित रहा ? यही गौतमस्वामी के प्रश्न का आशय है।
संसारसंस्थान न माना जाए तो-अगर भवान्तर में जीव की गति और योनि नहीं बदलती, तब तो उसके द्वारा किए हुए प्रकृष्ट पुण्य और प्रकृष्ट पाप निरर्थक हो जायेंगे। शुभकर्म करने पर भी पशु, पशु ही रहे और करोड़ों पाप कर्म करने पर भी मनुष्य, मनुष्य ही बना रहे तो उनके पुण्य और पाप कर्म का क्या फल हुआ? ऐसा मानने पर मुक्ति कदापि प्राप्त न हो सकेगी, क्योंकि जो जिस गति या योनि