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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [५९ में है, वह वहाँ से आगे कहीं न जा सकेगा; फलतः मुक्ति के लिए किये जाने वाले तप-जप-ध्यान आदि अनुष्ठान निष्फल ही सिद्ध होंगे। इसीलिए भगवान् ने बताया कि जीव चार प्रकार के संसार में संस्थित रहा है, कभी नारक, कभी तिर्यञ्च, कभी देव और कभी मनुष्य योनि में इस जीव ने समय बिताया है। त्रिविधिसंसारसंस्थानकाल–भगवान् ने संसारसंस्थानकाल तीन प्रकार का बताया हैशून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल। अशून्यकाल-आदिष्ट (वर्तमान में नियत अमुक) समय वाले नारकों में से एक भी नारक जब तक मर कर नहीं निकलता और न कोई नया जन्म लेता है, तब तक का काल अशून्यकाल है। अर्थात्-अमुक वर्तमानकाल में सातों नरकों में जितने भी जीव विद्यमान हैं, उनमें से न कोई जीव मरे, न ही नया उत्पन्न हो, यानी उतने के उतने ही जीव जितने समय तक रहें, उस समय को नरक की अपेक्षा अशून्यकाल कहते हैं। मिश्रकाल-वर्तमानकाल के इन नारकों में से एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से निकलतेनिकलते जब तक एक भी नारक शेष रहे, अर्थात्-विद्यमान नारकों में से जब एक का निकलना प्रारम्भ हुआ, तब से लेकर जब तक नरक में एक नारक शेष रहा, तब तक के समय को नरक की अपेक्षा मिश्रकाल कहते हैं। शून्यकाल-वर्तमानकाल के समादिष्ट (नियत) नारकों में से समस्त नारक नरक से निकल जाएँ, एक भी नारक शेष न रहे, और न ही उनके स्थान पर सभी नये नारक पहुँचें तब तक का काल नरक की अपेक्षा शून्यकाल कहलाता है। तिर्यंचयोनि में शून्यकाल नहीं है, क्योंकि तिर्यञ्चयोनि में अकेले वनस्पतिकाय के ही जीव अनन्त हैं, वे सबके सब उसमें से निकलकर नहीं जाते। शेष तीनों गतियों में तीनों प्रकार के संसारसंस्थानकाल हैं। तीनों कालों का अल्पबहुत्व-अशून्यकाल अर्थात् विरहकाल की अपेक्षा मिश्रकाल को अनन्तगुणा इसलिए कहा कि अशून्यकाल तो सिर्फ बारह मुहूर्त का है, जब कि मिश्रकाल वनस्पतिकाय में गमन की अपेक्षा अनन्तगुना है। नरक के जीव जब तक नरक में रहें, तभी तक मिश्रकाल नहीं, वरन् नरक के जीव नरक से निकलकर वनस्पतिकाय आदि तिर्यंञ्च, तथा मनुष्य आदि गतियों-योनियों में जन्म लेकर फिर नरक में आवें तब तक का काल मिश्रकाल है और शून्यकाल मिश्रकाल से भी अनन्तगुणा इसलिए कहा गया है कि नरक के जीव नरक से निकल कर वनस्पति में आते हैं, जिसकी स्थिति अनन्तकाल की है। तिर्यञ्चों की अपेक्षा अशून्यकाल सबसे कम हैं। संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट विरहकाल १२ मुहूर्त का, तीन विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यंचपंचेन्द्रिय का अन्तमुहूर्त का, पंच स्थावर जीवों में समय-समय में परस्पर एक दूसरे से असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं, अतः उनमें विरहकाल नहीं है। १. भगवती अ० वृत्ति, पत्रांक ४७-४८
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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