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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
उदय होता है, वहाँ मिथ्यात्व अवश्यम्भावी है। इस दृष्टि से पृथ्वीकायिक जीवों में आरम्भिकी आदि पांचों कियाएँ होती हैं ।
मनुष्यों के आहार की विशेषता - मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - महाशरीरी और अल्पशरीरी । महाशरीरी मनुष्य और नारकी दोनों बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, किन्तु दोनों के पुद्गलों में बहुत अन्तर है। महाशरीरी नारकी जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे निःसार और स्थूल होते हैं, जबकि मनुष्य – विशेषत: देवकुरु - उत्तरकुरु के भोगभूमिज मनुष्य जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे सारभूत और सूक्ष्म होते हैं। भोगभूमिज मनुष्यों का शरीर तीन गाऊ का होता है और उनका आहार अष्टभक्तअर्थात् - तीन दिन में एक बार होता है, इस अपेक्षा से महाशरीर मनुष्यों को कदाचित् आहार करने वाले (एक दृष्टि से अल्पाहारी) कहा गया है। जैसे एक तोला चाँदी से एक तोला सोने में अधिक पुद्गल होते हैं, वैसे ही देवकुरु - उत्तरकुरु के मनुष्यों का आहार दीखने में कम होते हुए भी सारभूत होने से उसमें अल्पशरीरी मनुष्य के आहार की अपेक्षा अधिक पुद्गल होते हैं। इस दृष्टि से उन्हें बहुत पुद्गलों का आहार करने वाला कहा गया है। अल्पशरीरी मनुष्यों का आहार निःसार एवं थोड़े पुद्गलों का होने से उन्हें बार-बार करना पड़ता है। जैसे कि बालक बार-बार आहार करता है।
कुछ पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या - जो संयम का पालन करता है, किन्तु जिसका संज्वलन कषाय क्षीण या उपशान्त नहीं हुआ, वह सरागसंयत कहलाता है। जिसके कषाय का सर्वथा क्षय या उपशम हो गया है, वह वीतरागसंयत कहलाता है ।
सयोग केवली क्रियारहित कैसे - जो महापुरुष कषायों से सर्वथा मुक्त हो गये हैं, वे क्रियाकर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया से रहित हैं। यद्यपि सयोगी अवस्था में योग की प्रवृत्ति से होने वाली ईर्य्यापथिक क्रिया उनमें विद्यमान है, तथापि वह क्रिया नहीं के बराबर है, इन क्रियाओं में उनकी गणना नहीं है।
अप्रमत्तसंयत में मायाप्रत्यया क्रिया – इसलिए होती है कि उसमें अभी कषाय अवशिष्ट हैं । और कषाय के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया कहलाती है ।
लेश्या की अपेक्षा चौबीस दण्डकों में समाहारादि - विचार - प्रस्तुत १२वें सूत्र में छह लेश्याओं के छह दण्डक (आलापक) और सलेश्य का एक दण्डक, इस प्रकार ७ दण्डकों से यहाँ विचार किया गया है । अगले सूत्र में लेश्याओं के नाम गिनाकर उससे सम्बन्धित सारा तात्त्विक ज्ञान प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद के द्वितीय उद्देशक से जान लेने का निर्देश किया गया है।
यद्यपि कृष्णलेश्या सामान्यरूप से एक है, तथापि उसके अवान्तर भेद अनेक हैं – कोई कृष्णलेश्या अपेक्षाकृत विशुद्ध होती है, कोई अविशुद्ध; एक कृष्णलेश्या से नरकगति मिलती है, एक भवनपति देवों में उत्पत्ति होती है, अतः कृष्णलेश्या के तरतमता के भेद से अनेक भेद हैं, इसलिए उनका आहारादि समान नहीं होता। यही बात सभी लेश्याओं वाले जीवों के सम्बन्ध में जान लेनी चाहिए।
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(क) उम्मगदेसओ मग्गणासओ गूढहिययमाइल्लो। सढसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंधए जीवो ॥ (ख) भगवती अ. वृत्ति पत्रांक ४४ से ४६ तक ।