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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] पुण्य क्षीण होता जाता है। पापकर्म बढ़ता जाता है, इसलिए वे महाकर्मी होते हैं। उनका वर्ण और लेश्या अशुद्ध हो जाती है। अथवा बद्धायुष्क की अपेक्षा पूर्वोत्पन्न असुरकुमार यदि तिर्यञ्चगति का आयुष्य बाँध चुके हों तो वे महाकर्म, अशुद्ध वर्ण और अशुद्ध लेश्या वाले होते हैं। पश्चादुत्पन्न बद्धायुष्क न हो तो वे इसके विपरीत होते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों का महाशरीर और अल्पशरीर-पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर यद्यपि अंगुल के असंख्यातवें भाग कहा गया है, तथापि अंगुल के असंख्यातवें भाग वाले शरीर में भी तरतमता से असंख्य भेद होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार किसी का शरीर संख्यात भाग हीन है, किसी का असंख्यात भाग हीन है, किसी का शरीर संख्यात भाग अधिक है और किसी का असंख्यात भाग अधिक है। इस चतुःस्थानपतित हानि-वृद्धि की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव अपेक्षाकृत अल्पशरीरी भी होते हैं और महाशरीरी भी। __ पृथ्वीकायिक जीवों की समानवेदना : क्यों और कैसे?-पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और वे असंज्ञी जीवों को होने वाली वेदना को वेदते हैं। उनकी वेदना अनिद है अर्थात् निर्धारणरहितअव्यक्त होती है। असंज्ञी होने से वे मूछित या उन्मत्त पुरुष के समान बेसुध होकर कष्ट भोगते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं रहता कि कौन पीड़ा दे रहा है? कौन मारता-काटता है, और किस कर्म के उदय से यह वेदना हो रही है ? यद्यपि सुमेरु पर्वत में जो जीव हैं, उनका छेदन-भेदन नहीं होता, तथापि पृथ्वीकाय का जब भी छेदन-भेदन किया जाता है तब सामान्यतया वैसी ही वेदना होती है, जैसी अन्यत्र स्थित पृथ्वीकायिक जीवों को होती है। पृथ्वीकायिक जीवों में पाँचों क्रियाएँ कैसे? - यद्यपि पृथ्वीकायिक जीव बिना हटाए एक स्थान से दूसरे स्थान पर हट भी नहीं सकते, वे सदा अव्यक्त चेतना की दशा में रहते हैं, फिर भी भगवान् कहते हैं कि पांचों क्रियाएँ करते हैं । वे श्वासोच्छ्वास और आहार लेते हैं, इन क्रियाओं में आरम्भ होता है। वास्तव में आरम्भ का कारण केवल श्वासादि क्रिया नहीं, अपितु प्रमाद और कषाय से युक्त क्रिया है। यही कारण है कि तेरहवें गुणस्थान वाले भी श्वासादि क्रिया करते हैं, तथापि वे आरम्भी नहीं कहलाते। निष्कर्ष यह है कि चाहे कोई जीव चले-फिरे नहीं, तथापि जब तक प्रमाद और कषाय नहीं छूटते, तब तक वह आरम्भी है और कषाय एवं प्रमाद के नष्ट हो जाने पर चलने-फिरने की क्रिया विद्यमान होते हुए भी वह अनारम्भी है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मायी-मिथ्यादृष्टि जीव प्रायः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं। यद्यपि पृथ्वीकायिक मायाचार करते दिखाई नहीं देते, किन्तु माया के कारण ही वे पृथ्वीकायिक में आए हैं। जीव किसी भी योनि में हो, यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो शास्त्र उसे मायीमिथ्यादृष्टि कहता है। मायी का एक अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय है और जहां अनन्तानुबन्धी कषाय का १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक ४१ से ४३ तक (क) भगवती अ. वृत्ति प. ४४ (ख) 'पुढविक्काइयस्स ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए' (ग)'अनिदा चित्तविकला सम्यग्विवेकविकला वा'-प्रज्ञापना वृत्ति पृ. ५५७। 'अणिदाए त्ति अविर्धारणया वेदनां वेदयन्ति, वेदनामनुभवन्तोऽपि मिथ्यादृष्टित्त्वात् विमनस्कत्वाद् वा मत्तमूच्छितादिवत् नावगच्छन्ति'-भगवती सूत्र अ. वृत्ति, प. ४४।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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