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प्रथम शतक : उद्देशक - १]
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(आप) को क्लेशित करते हैं; वे अपने आत्मा (आप) को (पूर्वोक्त प्रकार से ) क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मर कर वाणव्यन्तर देवों के किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। वाणव्यन्तर देवलोक - स्वरूप
[२] केरिसा णं भंते! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ?
गोयमा! से जहानामए इहं असोगवणे इ वा, सत्तवण्णवणे इ वा, चंपगवणे इ वा, चूतवणे इ वा, तिलगवणे इ वा, लउयवणे ति वा, णिग्गोहवणे इ वा, छत्तोववणे इ वा, असणवणे इ वा, सणवणे इ वा, अयसिवणे इ वा, कुसुंभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बंधुजीवगवणे इ वा णिच्चं कुसुमित माइत लवइत थवइय गुलुइत गुच्छित जमलित जुवलित विणमित पणमित सुविभत्त पिंडमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठति, एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहन्नेणं दसवासहस्सट्ठितीएहिं उक्कोसेणं पालिओवमट्ठितीएहिँ बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य आइण्णा वितकिण्णा उवत्था संथा फुडा अवगाढगाढा सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति । एरिसगा णं गोतमा ! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता । से तेणट्ठेणं गोतमा ! एवं वुच्चति - जीवे णं अस्संजए जाव देवे सिया ।
[१२-२ प्र.] भगवन् ! उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गए हैं ?
[१२-२ उ.] गौतम ! जैसे इस मनुष्यलोक में नित्य कुसुमित (सदा फूला हुआ), मयूरित (मौर - पुष्पविशेष वाला), लवकित ( कोंपलों वाला), फूलों के गुच्छों वाला, लतासमूह वाला, पत्तों
गुच्छों वाला, यमल ( समान श्रेणी के ) वृक्षों वाला, युगलवृक्षों वाला, फल-फूल के भार से नमा हुआ, फल-फूल के भार से झुकने की प्रारम्भिक अवस्था वाला, विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला अशोकवन, सप्तपर्ण वन, चम्पकवन, आम्रवन, तिलकवृक्षों का वन, तुम्बे की लताओं का वन, वटवृक्षों का वन, छत्रोघवन, अशनवृक्षों का वन, सन (पटसन) वृक्षों का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुम्बवृक्षों का वन, सफेद सरसों का वन, दुपहरिया (बन्धुजीवक) वृक्षों का वन, इत्यादि वन शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित होता है; इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की तथा उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले एवं बहुत-से वाणव्यन्तर देवों से और उनकी देवियों से आकीर्ण - व्याप्त, व्याकीर्ण – विशेष व्याप्त, एक दूसरे पर आच्छादित, परस्पर मिले हुए, स्फुट प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ़ श्री – शोभा से अतीव - अतीव सुशोभित रहते हैं । हे गौतम ! उन वाणव्यन्तर देवों के स्थान – देवलोक इसी प्रकार के कहे गए हैं। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि असंयत जीव मर कर यावत् कोई देव होता है और कोई देव नहीं होता ।
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विवेचन - असंयत जीवों की गति एवं वाणव्यन्तर देवलोक - प्रस्तुत सूत्र में असंयत जीवों को प्राप्त होने वाली देवगति तथा देवलोकों में भी वाणव्यन्तर देवों में जन्म और उसका कारण एवं वाणव्यन्तर देवों के आवास स्थानों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
कठिन शब्दों की व्याख्या -
-असंयत - असाधु या संयमरहित ।