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________________ ४०] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हैं-(१) अनादिकं (जिसकी आदि न हो), (२) अज्ञातिकं (जिसका कोई स्व-जन न हो,) (३) ऋणातीतं (ऋण से होने वाले दुःख को भी मात करने वाले दुःख को देने वाला) और (४) अणातीत (अतिशय पाप को प्राप्त)। अणवदग्गं के संस्कृत में तीन रूपान्तर करके वृत्तिकार ने उसके अनेक अर्थ सूचित किये हैं(१) अनवदग्रम् (अवदा अन्त से रहित= अनन्त), (२) अनवनताग्रम्-जिसका अग्र=अन्त, अवनत यानी आसन्न (निकट) न हो; और (३) अनवगताग्रम्-जिसका अग्र-परिमाण, अनवमत हो-पता न चले। दीहमद्धं-अद्धं के दो रूप-अध्व और अद्ध; अर्थ हुए 'जिसका अध्व (मार्ग) या अद्धा-काल दीर्घ-लम्बा हो। असंयत जीव की देवगति विषयक चर्चा १२. [२] जीवे णं भंते! असंजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इतो चुए पेच्चा देवे सिया ? गोयमा! अत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया। से केणढेणं जाव इतो चुए पेच्चा अत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया ? गोयमा! जे इमे जीवा गामाऽऽगर-नगर-निगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणाऽऽसम-सन्निवेसेसु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामअण्हाणगसेय-जल्ल-मल-पंकपरिदाहेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, अप्पाणं परिकिलेसइत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। [१२-१ प्र.] भगवन्! असंयत, अविरत तथा जिसने पापकर्म का हनन एवं त्याग नहीं किया है, वह जीव इस लोक से च्यव (मर) कर क्या परलोक में देव होता है ? [१२-१ उ.] गौतम! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता। [प्र.] भगवन्! यहाँ से च्यव कर परलोक में कोई जीव देव होता है, और कोई जीव देव नहीं होता; इसका क्या कारण है ? [उ.] गौतम! जो ये जीव ग्राम, आकर (खान), नगर, निगम (व्यापारिक केन्द्र), राजधानी, खेट (खेड़ा) कर्बट (खराब नगर), मडम्ब (चारों ओर ढाई-ढाई कोस तक बस्ती से रहित बस्ती), द्रोणमुख (बन्दरगाह जलपथ-स्थलपथ से युक्त बस्ती), पट्टण (पत्तन–मण्डी, जहाँ देश-देशान्तर से आया हुआ माल उतरता है), आश्रम (तापस आदि का स्थान), सन्निवेश (घोष आदि लोगों का आवासस्थान) आदि स्थानों में अकाम तृषा (प्यास) से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से, अकाम शीत, आतप, तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहने से, अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल (धूल लिपट जाना), मैल तथा पंक से होने वाले परिदाह से थोड़े समय तक या बहुत समय तक अपने आत्मा १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३४-३५
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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