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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[३९ कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता, (अतएव वह) अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चातुर्गतिकरूप संसार-अरण्य का उल्लंघन कर जाता है। इस कारण से, हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि संवृत अनगार सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है।
विवेचन-असंवृत और संवृत अनगार के सिद्ध होने से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में क्रमशः असंवृत और संवृत अनगार के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत और सर्वदुःखान्तकर होने तथा न होने के सम्बन्ध में युक्तिसहित विचार प्रस्तुत किया गया है।
असंवृत-जिस साधु ने अनगार होकर हिंसादि आश्रवद्वारों को रोका नहीं है।
संवृत-आश्रवद्वारों का निरोध करके संवर की साधना करने वाला मुनि संवृत अनगार है। ये छठे गुणस्थान (प्रमत्तसंयत) से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती तक होते हैं। संवृत अनगार दो प्रकार के होते हैं-चरमशरीरी और अचरमशरीरी। जिन्हें दूसरा शरीर धारण नहीं करना पड़ेगा, वे एकभवातारी चरमशरीरी और जिन्हें दूसरा शरीर (सात-आठ भव तक) धारण करना पड़ेगा, वे अचरमशरीरी होते हैं। प्रस्तुत सूत्र चरमशरीरी की अपेक्षा से है। परम्परारूप से अचरमशरीर की अपेक्षा से भी है।
दोनों में अन्तर– यद्यपि परम्परा से तो शुक्लपाक्षिक भी मोक्ष प्राप्त करेंगे ही, फिर भी संवृत और असंवृत अनगार का जो भेद किया गया है, उसका रहस्य यह है कि अचरमशरीरी संवृत अनगार उसी भव में मोक्ष भले न जाएँ मगर वे ७-८ भवों में अवश्य मोक्ष जायेंगे ही। इस प्रकार उनकी परम्परा की सीमा ७-८ भवों की ही है। अपार्धपुद्गलपरावर्तन की जो परम्परा अन्यत्र कही गई है, वह विराधक की अपेक्षा से समझना चाहिए। अविराधक अचरमशरीरी संवृत्त अनगार अवश्य सात-आठ भवों में मोक्ष पाता है, भले ही उसकी चारित्राराधना जघन्य ही क्यों न हो।
'सिज्झइ' आदि पांच पदों का अर्थ और क्रम-चरम भव-अन्तिम जन्म प्राप्त करके जो मोक्षगमनयोग्य होता है, वही सिद्ध (सिद्धिप्राप्त) होता है; चरमशरीरी मानव को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कहे सकते हैं, बुद्ध नहीं। बुद्ध तभी कहेंगे जब केवलज्ञान प्राप्त होगा। जो बुद्ध हो जाता है, उसके केवल भवोपग्राही अघातिकर्म शेष रहते हैं, भवोपग्राही कर्म को जब वह प्रतिक्षण छोड़ता है, तब मुक्त कहलाता है। भवोपग्राही कर्मों को प्रतिक्षण क्षीण करने वाला वह महापुरुष कर्मपुद्गलों को ज्यों-ज्यों क्षीण करता जाता है, त्यों-त्यों शीतल होता जाता है, इस प्रकार की शीतलता- शांति प्राप्त करना ही निर्वाणप्राप्त करना है। वही जीव अपने भव के अन्तसमय में जब समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुकता है, तब अपने समस्त दुःखों का अन्त करता है।
असंवृत अनगार : चारों प्रकार के बन्धों का परिवर्धक-कर्मबन्ध के चार प्रकार हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। असंवृत अनगार के योग अशुभ होते हैं और कषाय तीव्र। इस कारण वह चारों ही बन्धों में वृद्धि करता है।
अणाइयं के संस्कृत में चार रूपान्तर वृत्तिकार ने करके उसके पृथक्-पृथक् अर्थ सूचित किये