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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[३३ [२३] इसी तरह ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनका उच्छ्वास जघन्य मुहूर्तपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी मुहूर्तपृथक्त्व के बाद होता है। उनका आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व के पश्चात् होता है। शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।
[२४] वेमाणियाणं ठिती भाणियव्वा ओहिया। ऊसासो जहन्नेणं मुहत्तपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं।आहारो आभोगनिव्वत्तिओ जहन्नेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं। सेसं तहेव जाव' निज्जरेंति।
[२४] वैमानिक देवों की औधिक स्थिति कहनी चाहिए। उनका उच्छ्वास जघन्य मुहूर्तपृथक्त्व से और उत्कृष्ट तेतीस पक्ष के पश्चात् होता है। उनका आभोगनिवर्तित आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व से
और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष के पश्चात् होता है। वे 'चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते', इत्यादि (यहाँ तक) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए।
विवेचन-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की स्थिति आदि का वर्णन-छठे सूत्र के अन्तर्गत चौबीस दण्डकों में से अन्तिम २० से २४वें दण्डक के जीवों की स्थिति आदि का निरूपण किया गया है।
पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं तीनों निकायों के देवों का समावेश हो जाता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य की स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। वाणव्यन्तर देवों की स्थिति जघन्य १० हजार वर्ष, उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। ज्योतिष्क देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के ८वें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। वैमानिक देवों की औधिक (समस्त वैमानिक देवों की अपेक्षा से सामान्य) स्थिति कही है। औधिक का परिमाण एक पल्योपम से लेकर तेतीस सागरोपम तक है। इसमें जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोक की अपेक्षा से और उत्कृष्ट स्थिति अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा से कही गई है।
तिर्यंचों और मनुष्यों के आहार की अवधि : किस अपेक्षा से? - प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का आहार षष्ठभक्त (दो दिन) बीत जाने पर बतलाया गया है, वह देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के यौगलिक तिर्यञ्चों की तथा ऐसी ही स्थिति (आयु) वाले भरत-ऐरवत क्षेत्रीय तिर्यंचयौगलिकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों का आहार अष्टमभक्त बीत जाने पर कहा गया है, वह भी देवकुरु-उत्तरकुरु के यौगलिक मनुष्यों की तथा भरत-ऐरवतक्षेत्र में जब उत्सर्पिणी काल का छठा आरा समाप्ति पर होता है, और अवसर्पिणी काल का प्रथम आरा प्रारम्भ होता है, उस समय के मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए।
वैमानिक देवों के श्वासोच्छ्वास एवं आहार के परिमाण का सिद्धान्त-यह है कि जिस वैमानिक देव की जितने सागरोपम की स्थिति हो, उसका श्वासोच्छ्वास उतने ही पक्ष में होता है, और
४. यहाँ"जाव" शब्द के लिए सूत्र ६, का १-४ से १-१० तक का सूत्रपाठ देखें।