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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
त्रीन्द्रिय की ४९ अहोरात्र की, एवं चतुरिन्द्रिय की छह मास की है ।
असंख्यातसमय वाला अन्तर्मुहूर्त - एक अन्तर्मुहूर्त्त में असंख्यात समय होने से वह असंख्येय भेदवाला होता है, इसलिए द्वीन्द्रिय जीवों को आभोग आहार की अभिलाषा असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त्त के पश्चात् बताई गई है।
रोमाहार - वर्षा आदि में स्वतः (ओघतः) रोमों द्वारा जो पुद्गल प्रविष्ट हो जाते हैं, उनके ग्रहण को रोमाहार कहते हैं । २
[२०] पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ठितिं भाणिऊण ऊसासो वेमायाए । आहारो अणाभोग- निव्वत्तिओ अणुसमयं अविरहिओ आभोगनिव्वत्तिओ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्टभत्तस्स । सेसं जहा चउरिंदियाणं जाव' चलिये कम्मं निज्जरेंति ।
[२०] पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कह कर उनका उच्छ्वास विमात्रा से (विविध प्रकार से – अनियत काल में) कहना चाहिए, उनका अनाभोगनिर्वर्तित आहार प्रतिसयम विरहरहित ( निरन्तर ) होता है । आभोगनिर्वर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त अर्थात् दो दिन व्यतीत होने पर होता है। इसके सम्बन्ध में शेष वक्तव्य 'अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते', यहाँ तक चतुरिन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए। मनुष्य एवं देवादि विषयक चर्चा
[ २१ ] एवं मणुस्साण वि । नवरं आभोगनिव्वत्तिए जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स । सोइंदिय ५२ वेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। सेसं तहेव जाव निज्जरेंति ।
[२१] मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि उनका आभोगनिर्वर्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त में, उत्कृष्ट अष्टभक्त अर्थात् तीन दिन बीतने पर होता है ।
पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा गृहीत आहार श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय, इन पाँचों इन्द्रियों के रूप में विमात्रा से बार-बार परिणत होता है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए; यावत् वे ‘अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते । '
[ २२ ] वाणमंतराणं ठिईए नाणत्तं अवसेसं जहारे नागकुमाराणं ।
[२२] वाणव्यन्तर देवों की स्थिति में भिन्नता (नानात्व) है। (उसके सिवाय) शेष समस्त वर्णन नागकुमारदेवों की तरह समझना चाहिए ।
[२३] एवं जोइसियाण वि । नवरं उस्सासो जहन्नेणं मुहुत्तपुहत्तस्स, उक्कोसेण वि मुहुत्तपुहत्तस्स । आहारो जहन्नेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहत्तस्स । सेसं तहेव ।
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भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक ३०
'जाव' शब्द से छठे सूत्र के १-२ से १-१० तक का सूत्रपाठ देखें ।
यहाँ '५' का अंक पाँचों इन्द्रियों का सूचक है।
यहाँ 'जहा' शब्द सू-६, के ३-२ से लेकर ३-१० तक के पाठ का सूचक है।