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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[३१ [१७-६] बेइंदियाणं भंते! पुव्वाहारिया पुग्गला परिणया तहेव जाव चलियं कम्म निज्जरेंति।
१७-६ प्र.] हे भगवन्! द्वीन्द्रिय जीवों को क्या पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए हैं ?
[१७-६ उ.] ये 'चलित कर्म की निर्जरा करते हैं ' यहाँ तक सारा वक्तव्य पहले की तरह समझ लेना चाहिए।
[१८-१९-१] तेइंदिय-चउरिदियाणं णाणत्तं ठितीए जाव णेगाइं च णं भागसहस्साइं अणाघाइज्जमाणाई अणासाइज्जमाणाइं अफासाइज्जमाणाइं विद्धंसमागच्छति।
[१८-१९-१] त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति में भेद है, (शेष सब वर्णन पूर्ववत् है) यावत् अनेक-सहस्रभाग बिना सूंघे, बिना चखे तथा बिना स्पर्श किये ही नष्ट हो जाते हैं।
[१८-१९-२] एतेसिंणं भंते! पोग्गलाणं अणाघाइज्जमाणाणं ३,२ पुच्छा।
गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा, अणासाइज्जमाणा अणंतगुणा, अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा।
[१८-१९-२ प्र.] भगवन्! इन नहीं सूंघे हुए, नहीं चखे हुए और नहीं स्पर्श किये हुए पुद्गलों में से कौन किससे थोड़ा बहुत तुल्य या विशेषाधिक है? ऐसी पृच्छा करनी चाहिए।
[१८-१९-२ उ.] गौतम! नहीं सूंघे हुए पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे अनन्तगुणे नहीं चखे हुए पुद्गल हैं, और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल नहीं स्पर्श किये हुए हैं।
[१८-३] तेइंदियाणं घाणिंदिय-जिब्भिदिय-फासिंदियवेमायत्ताएं भुज्जो भुज्जो परिणमंति।
[१८-३] त्रीन्द्रिय जीवों द्वारा किया हुआ आहार घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है।
[१९-३] चउरिदियाणंचक्खिदिय-घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति।
। [१९-३] चतुरिन्द्रिय जीवों द्वारा किया हुआ आहर चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है।
विवेचन-विकलेन्द्रिय जीवों की स्थिति आदि का वर्णन-छठे सूत्र के अन्तर्गत १७१८-१९वें दण्डक के रूप में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति आदि का वर्णन किया गया है।
विकलेन्द्रिय जीवों की स्थिति-जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट द्वीन्द्रिय को बारह वर्ष की, १. यहाँ 'जाव' पद से छठे सूत्र के १-४ से १-१० पर्यन्त सूत्रपाठ देखें। २. यहाँ'३' अंक से 'अणसाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाणं' ये दो पद सूचित किये गये हैं।