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________________ ३४] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आहार उतने ही हजार वर्ष में होता है।' इस दृष्टि से यहाँ श्वासोच्छ्वास और आहार का जघन्य परिमाण जघन्य स्थिति वाले वैमानिक देवों की अपेक्षा और उत्कृष्ट परिमाण उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए । मुहूर्त्तपृथक्त्व : जघन्य और उत्कृष्ट – जघन्य मुहूर्त्तपृथक्त्व में दो या तीन मुहूर्त्त और उत्कृष्ट मुहूर्त्त पृथक्त्व में आठ या नौ मुहूर्त्त समझना चाहिए । २ जीवों की आरंभ विषयक चर्चा ७. [ १ ] जीवा णं भंते! किं आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, ३ नो अणारंभा । अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । [७-१ प्र.] हे भगवन्! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं, अथवा अनारम्भी हैं ? [७-१ उ.] हे गौतम! कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं है। कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी नहीं हैं, और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं । - [२] से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चति – अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि ? एवं पडिउच्चारेतव्वं । गोमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य । तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं नो आयारंभा जाव अणारंभा । तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - संजता य, असंजता य । तत्थ णं जे ते संजता दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पमत्तसंजता य, अप्पमत्तसंजता य । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजता ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुभं जोगं पडुच्च यारंभा जाव अणारंभा, असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा । तत्थ णं जे ते असंजता ते अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा । तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ(अत्थेगइया जीवा जाव अणारंभा । १. २. ३. ४. " जस्स जाई सागराई तस्स ठिई तत्तिएहिं पक्खेहिं । उसासो देवाण वाससहस्सेहिं आहारो ॥" भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३०-३१ - 'वि' (अपि) शब्द पूर्वपद और उत्तरपद के सम्बन्ध को तथा कालभेद से एकाश्रयता या भिन्नाश्रयता सूचित करने के लिए हैं। जैसे-एक ही जीव किसी समय आत्मारम्भी, किसी समय परारम्भी और किसी समय तदुभयारम्भी होता है। इसलिए अनारम्भी नहीं होता। भिन्नाश्रयता भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। जैसे कई (असंयती जीव) आत्मारम्भी, कई परारम्भी और कई उभयारम्भी होते हैं, इत्यादि । 'जाव' पद के लिए देखिये सू. ७-१ का सूत्रपाठ
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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