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________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [५१९ पल्यंकाकार, बीच में उत्तम वज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार कहा है। उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित्त, परिवृत्त, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो-हो कर नष्ट होते हैं और परित्त (नियत-असंख्य) जीवघन भी उत्पन्न हो-हो कर विनष्ट होते हैं। इसीलिए ही तो यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है। यह, अजीवों (अपनी सत्ता को धारण करते, नष्ट होते, और विभिन्न रूपों में परिणत होते लोक के अनन्यभूत पुद्गलादि) से लोकित निश्चित होता है, तथा यह (भूत आदि धर्म वाला लोक) विशेषरूप से लोकित निश्चित होता है। 'जो (प्रमाण से) लोकित—अवलोकित होता है, वही लोक है न ?' (पार्खापत्य स्थविर-) हाँ, भगवन् ! (वही लोक है।) इसी कारण से, हे आर्यो! ऐसा कहा जाता है कि असंख्य लोक में (अनन्त रात्रिदिवस...यावत् परिमित रात्रि-दिवस यावत् विनष्ट होंगे।) इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए। [३] तप्पभितिं च णं ते पासावच्चे थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति 'सव्वण्णुं सव्वदरिसिं'। [१४-३] तब से वे पापित्य स्थविर भगवन्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जानने लगे। १५. [१] तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, २ एवं वदासी इच्छामो णं भंते! तुब्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सप्पडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। [१५-१] इसके पश्चात् उन (पार्वापत्य) स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-भगवन्! चातुर्याम धर्म के बदले हम आपके पास प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतरूप धर्म को स्वीकार करके विचरण करना चाहते हैं।' [२] अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह।' [१५-२ भगवान्-] 'देवानुप्रिय! जिस प्रकार आपको सुख हो, वैसा करो, किन्तु प्रतिबन्ध (शुभ कार्य में ढील या रुकावट) मत करो।' १६. तए णं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जाव' चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिद्धा जावर सव्वदुक्खप्पहीणा, अत्थेगइया देवा देवलोगेसु उववन्ना। [१६] इसके पश्चात् वे पार्खापत्य स्थविर भगवन्त,...यावत् अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास के साथ सिद्ध हुए यावत् सर्वदुःखों से प्रहीण (मुक्त-रहित) हुए और (उनमें से) कई (स्थविर) देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हुए। विवेचन–पाश्र्वापत्य स्थविरों द्वारा भगवान् से लोक-सम्बन्धी शंका-समाधान एवं १.'जाव' पद से यहाँ निर्वाणगामी मुनि का वर्णन करना चाहिए। २.'जाव' पद से यहाँ 'बुद्धा परिनिव्वुडा' आदि पद कहने चाहिए।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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