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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पाश्र्वापत्य स्थविरों द्वारा भगवान् से लोक-सम्बन्धी शंका-समाधान एवं पंचमहाव्रत धर्म में समर्पण
१४. [१] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिजा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वदासी से नूणं भंते! असंखेज्जे लोए, अणंतारातिंदिया उप्पग्जिसु वा उप्पजति वा उप्पज्जिस्संति वा ?, विगच्छिंसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा ?, परित्ता रातिंदिया उप्पग्जिसु वा उप्पज्जंति वा उप्पजिस्संति वा ? विगच्छिंसु वा ३ ?
हंता, अज्जो! असंखेज्जे लोए, अणंता रातिंदिया० तं चेव।
[१४-१ प्र.] उस काल और उस समय में पापित्य (पार्श्वनाथ भगवान् के सन्तानीय शिष्य) स्थविर भगवन्त, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आए। वहाँ आ कर वे श्रमण भगवान् महावीर से अदूरसामन्त (अर्थात्-न बहुत दूर और न बहुत निकट; अपितु यथायोग्य स्थान पर) खड़े रह कर इस प्रकार पूछने लगे-भगवन्! असंख्य लोक में क्या अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे? अथवा परिमित (नियत परिमाण वाले) रात्रिदिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे: तथा नष्ट हए हैं. नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे?
। [१४-१ उ.] हाँ, आर्यो! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं, यावत् उपर्युक्त रूप सारा पाठ कहना चाहिए।
[२] से केणढेणं जाव विगच्छिस्संति वा ? से नूणं भे अज्जो! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं "सासते लोए वुइते अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिवुडे; हेट्ठा वित्थिपणे, मझे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलियंकसंठिते, मज्झे वरवइरविग्गहिते, उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिते।तंसिचणंसासयंसि लोगंसिअणादियंसिअणवदग्गंसि परित्तंसि परिवुडंसि हेट्ठा वित्थिण्णंसि, मज्झे संखित्तंसि, उप्पिं विसालंसि, अहे पलियंकसंठियंसि, मझे वरवइरविग्गहियंसि, उप्पिं उद्दमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयंति, परित्ता जीवघणा उप्पज्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयंति। से भूए उप्पन्ने विगते परिणए अजीवेहिं लोक्कति, पलोक्कइ। जे लोक्कइ से लोए ?
"हंता, भगवं!'।से तेणढेणं अज्जो! एवं वुच्चति असंखेज्जे तं चेव ।
[१४-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न यावत् नष्ट होंगे?
[१४-२ उ.] हे आर्यो! यह निश्चित है कि आपके (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय (पुरुषों में ग्राह्य), अर्हत् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है। इसी प्रकार लोक को अनादि, अनवदन (अनन्त), परिमित, अलोक से परिवृत (घिरा हुआ), नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, और ऊपर विशाल तथा नीचे
१. यहाँ 'लोक' के पूर्वसूचित समग्र विशेषण कहने चाहिए।