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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पंचमहाव्रतधर्म में समर्पण प्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने पार्श्वनाथशिष्य स्थविरों के भगवान् महावीर के पास लोक सम्बन्धी शंका के समाधानार्थ आगमन से लेकर उनके सिद्धिगमन या स्वर्गगमन तक का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है।
पापित्य स्थविरों द्वारा कृत दो प्रश्नों का आशय (१) स्थविरों द्वारा पूछे गए प्रथम प्रश्न का आशय यह है कि जो लोक असंख्यात प्रदेशवाला है, उसमें अनन्त रात्रि-दिवस (काल), कैसे हो या रह सकते हैं ? क्योंकि लोकरूप आधार असंख्यात होने से छोटा है और रात्रि-दिवसरूप आधेय अनन्त होने से बड़ा है। अतः छोटे आधार में बड़ा आधेय कैसे रह सकता है ? (२) दूसरे प्रश्न का आशय यह है कि जब रात्रि-दिवस (काल) अनन्त हैं, तो परित्त कैसे हो सकते हैं ?
भगवान द्वारा दिये गए समाधान का आशय उपर्युक्त दोनों प्रश्नों के समाधान का आशय यह है—एक मकान में हजारों दीपकों का प्रकाश समा सकता है, वैसे ही तथाविधस्वभाव होने से असंख्यप्रदेशात्मक लोक में अनन्त जीव रहते हैं। वे जीव साधारण शरीर की अपेक्षा एक ही स्थान में, एक ही समय में, आदिकाल में अनन्त उत्पन्न होते हैं और अनन्त ही विनष्ट होते हैं। उस समय वह समयादिकाल साधारण शरीर में रहने वाले अनन्तजीवों में से प्रत्येक जीव में विद्यमान है, तथैव प्रत्येक शरीर में रहने वाले परित्त (परिमित) जीवों में से प्रत्येक जीव में विद्यमान है। क्योंकि वह समयादि काल में जीवों की स्थिति पर्यायरूप है। इस प्रकार काल अनन्त भी हुआ और परित्त भी हआ। इसी कारण से कहा गया—असंख्यलोक में रात्रि-दिवस अनन्त भी हैं, परित्त भी। इसी प्रकार तीनों काल में हो सकता
लोक अनन्त भी है, परित्त भी; इसका तात्पर्य भगवान् महावीर ने अपने पूर्वज पुरुषों में माननीय (आदानीय) तीर्थंकर पार्श्वनाथ के मत का ही विश्लेषण करते हुए बताया कि लोक शाश्वत एवं प्रतिक्षण स्थिर भी है और उत्पन्न, विगत (विनाशी) एवं परिणामी (निरन्वय विनाशी नहीं किन्तु विविधपर्यायप्राप्त) भी. है। वह अनादि होते हुए भी अनन्त है। अनन्त (अन्तरहित) होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा से परित्त (परिमित-असंख्येय) है।
अनन्त जीवघन और परित्त जीवघन–अनन्त जीवघन का अर्थ है-परिमाण से अनन्त अथवा जीवसन्तति की अपेक्षा अनन्त। जीवसंतति का कभी अन्त नहीं होता इसलिए सूक्ष्मादि साधारण शरीरों की अपेक्षा तथा संतति की अपेक्षा जीव अनन्त हैं। वे अनन्तपर्याय समूहरूप होने से तथा असंख्येयप्रदेशों का पिण्डरूप होने से घन कहलाते हैं। ये हुए अनन्त जीवघन। तथा प्रत्येक शरीर वाले भूत भविष्यत्काल की संतति की अपेक्षा से रहित होने से पूर्वोक्तरूप से परित्त जीवघन कहलाते हैं। चूंकि अनन्त और परित्त जीवों के सम्बन्ध से रात्रि-दिवसरूप कालविशेष भी अनन्त और परित्त कहलाता है, इसलिए अनन्त जीवरूप लोक के सम्बन्ध से रात्रि दिवस रूप कालविशेष भी अनन्त हो जाता है और परित्त जीवरूप लोक के सम्बन्ध से रात्रि दिवसरूप कालविशेष भी परित्त हो जाता है। अतः इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है।
१. (क) भगवती अ. वृत्ति पत्रांक २४८-२४९ (ख) भगवती हिन्दी विवेचन भा. २ पृ. ९२५