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पंचम शतक : उद्देशक-९]
[५१५ तथा शुभ और अशुभ पुद्गल-परिणाम होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है, कि उनके उद्योत भी है और अन्धकार भी है।
८. एवं जाव मणुस्साणं। [८] इसी प्रकार (तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय और) यावत् मनुष्यों तक के लिए कहना चाहिए। ९. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा।
[९] जिस प्रकार असुरकुमारों (उद्योत-अन्धकार) के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए।
विवेचन–चौबीसदण्डक के जीवों के उद्योत-अन्धकार के विषय में प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू.३ से ९ तक) में नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक के उद्योत और अन्धकार के सम्बन्ध में कारण-पूर्वक सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई है।
उद्योत और अन्धकार के कारण : शुभाशुभ पुद्गल एवं परिणाम क्यों और कैसे? - शास्त्रकार ने दिन में शुभ और रात्रि में अशुभ पुद्गलों का कारण प्रकाश और अन्धकार बतलाया है, इसके पीछे रहस्य यह है कि दिन में सूर्य की किरणों के सम्पर्क के कारण पुद्गल के परिणाम शुभ होते हैं, किन्तु रात्रि में सूर्यकिरणसम्पर्क न होने से पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता है।
नरकों में पुद्गलों की शुभता के निमित्तभूत सूर्यकिरणों का प्रकाश नहीं है, इसलिए वहाँ अन्धकार है। पृथ्वीकायिक से लेकर त्रीन्द्रिय तक के जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में हैं, और उन्हें सूर्य-किरणों आदि का सम्पर्क भी है, फिर भी उनमें अन्धकार कहा है, उसका कारण यह है कि उनके चक्षुरिन्द्रिय न होने से दृश्य वस्तु दिखाई नहीं देती, फलतः शुभ पुद्गलों का कार्य उनमें नही होता, उस अपेक्षा से उनमें अशुभ पुद्गल हैं; अतः उनमें अन्धकार ही है। चतुरिन्द्रिय जीवों से लेकर मनुष्य तक में शुभाशुभ दोनों पुद्गल होते हैं, क्योंकि उनके आँख होने पर भी जब रविकिरणादि का सद्भाव होता है, तब दृश्य पदार्थों के ज्ञान में निमित्त होने से उनमें शुभ पुद्गल होते हैं, किन्तु रविकिरणादि का सम्पर्क नहीं होता, तब पदार्थज्ञान का अजनक होने से उनमें अशुभ पुद्गल होते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के रहने के आश्रय (स्थान) आदि की भास्वरता के कारण वहाँ शुभ पुद्गल हैं, अतएव अन्धकार नहीं उद्योत है । चौबीस दण्डकों में समयादि काल-ज्ञानसम्बन्धी प्ररूपणा
१०.[१] अत्थिणं भंते! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायति,तं जहा—समया ति वा आवलिया ति वा जाव ओसप्पिणी ति वा उस्सप्पिणी ति वा?
णो इणठे समठे।
१. यहाँ 'जाव' पद से तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों का ग्रहण करना चाहिए। २. यहाँ'जाव' पद से लव, स्तोक, मुहूर्त, दिवस, मास इत्यादि समस्त काल-विभागसूचक अवसर्पिणीपर्यन्त शब्दों का
कथन करना चाहिए।