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पंचम शतक : उद्देशक - ९]
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[२-२ उ.] गौतम ! पृथ्वी जीव- (पिण्ड) है और अजीव - (पिण्ड) भी है, इसलिए यह राजगृह नगर कहलाती है, यावत् सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य भी जीव हैं, और अजीव भी हैं, इसलिए ये द्रव्य (मिलकर) राजगृह नगर कहलाते हैं । हे गौतम! इसी कारण से पृथ्वी आदि को राजगृह नगर कहा जाता है ।
विवेचन- राजगृह के स्वरूप का निर्णय : तात्त्विक दृष्टि से श्री गौतमस्वामी ने प्रायः बहुत से प्रश्न श्रमण भगवान् महावीर से राजगृह में पूछे थे, भगवान् के बहुत-से विहार भी राजगृह में हुए थे। इसलिए नौवें उद्देशक के प्रारम्भ में राजगृह नगर के स्वरूप के विषय में तात्त्विक दृष्टि से पूछा गया है।
निष्कर्ष — चूंकि पृथ्वी आदि के समुदाय के बिना तथा राजगृह में निवास करने वाले मनुष्य, पशु-पक्षी आदि के समूह के बिना 'राजगृह' शब्द की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः राजगृह जीवाजीवा रूप है।
चौबीस दण्डक के जीवों के उद्योत-अन्धकार के विषय में प्ररूपणा
३. [१] से नूणं भंते दिया उज्जोते रातिं अंधकारे ?
हंता, गोयमा ! जाव अंधकारे ।
[३-१ प्र.] हे भगवन् ! क्या दिन में उद्योत (प्रकाश) और रात्रि में अन्धकार होता है ? [३ - १ उ.] हाँ, गौतम ! दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ।
[२] से केणट्ठेणं० ?
गौतमा ! दिया सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरिणामे, रातिं असुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे, से तेणट्ठेणं० ?
[३-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ?
[३-२ उ.] गौतम! दिन में शुभ पुद्गल होते हैं अर्थात् शुभ पुद्गल - परिणाम होते हैं, किन्तु रात्रि में अशुभ पुद्गल अर्थात् अशुभ पुद्गल - परिणाम होते हैं। इस कारण से दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है।
है ।
४. [१] नेरइयाणं भंते! किं उज्जोए, अंधकारे ? गोयमा ! नेरइयाणं नो उज्जोए, अंधयारे ।
[४-१ प्र.] भगवन्! नैरयिकों के ( निवासस्थान में) उद्योत होता है, अथवा अन्धकार होता है ? [४-१ उ.] गौतम! नैरयिक जीवों के (स्थान में ) उद्योत नहीं होता, (किन्तु) अन्धकार होता
[२] से केणट्ठेणं० ?
गोतमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे, से तेणट्ठेणं० ।
१. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २४६