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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वि जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं अवट्ठिएहिं वक्कंतिकालो' भाणियव्वो।
[२७] शेष सभी जीव सोपचय भी हैं,सापचय भी हैं,सोपचय-सापचय भी हैं और निरुपचयनिरपचय भी हैं। इन चारों का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट, आवलिका का असंख्यातवाँ भाग है। अवस्थितों (निरुपचय-निरपचय) में व्युत्क्रान्तिकाल (विरहकाल) के अनुसार कहना चाहिए।
२८.[१] सिद्धा णं भंते! केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ समया। [२८-१ प्र.] भगवन्! सिद्ध भगवान् कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? [२८-१ उ.] गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आठ समय तक वे सोपचय रहते हैं। [२] केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति०।
पंचमसए : अट्ठमो उद्देसो॥ [२८-२ प्र.] और सिद्ध भगवान्, निरुपचय-निरपचय कितने काल तक रहते हैं ?
[२८-२ उ.] (गौतम!) वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक निरुपचय-निरपचय रहते हैं।
'हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरने लगे।
विवेचन संसारी और सिद्ध जीवों में सोपचयादि चतुर्भग एवं उनके काल-मान का निरूपण—प्रस्तुत आठ सूत्रों में समुच्चयजीवों तथा चौबीस दण्डकों व सिद्धों में सोपचयादि के अस्तित्व एवं उनके कालमान का निरूपण किया गया है।
सोपचयादिचार भंगों का तात्पर्य -सोपचय का अर्थ है—वृद्धिसहित। अर्थात् —पहले के जितने जीव हैं, उनमें नये जीवों की उत्पत्ति होती है, उसे सोपचय कहते हैं। पहले के जीवों में से कई जीवों के मर जाने से संख्या घट जाती है, उसे सापचय (हानि सहित) कहते हैं। उत्पाद और उद्वर्तन (मरण) द्वारा एक साथ वृद्धि-हानि होती है, उसे सोपचय-सापचय (वृद्धिहानिसहित) कहते हैं, उत्पाद और उद्वर्तन के अभाव से वृद्धि-हानि न होना 'निरुपचय-निरपचय' कहलाता है।
१. व्युत्क्रान्ति (विरह) काल के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए 'प्रज्ञापनासूत्र' का छठा 'व्युत्क्रान्ति पद' देखना
चाहिए। सं..