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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र महाविदेह क्षेत्र, जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड आदि किसी भी क्षेत्र में विद्यमान हों, साधुत्व की-साधना करने वालों को नमस्कार करने की दृष्टि से 'सव्व' विशेषण का प्रयोग किया गया है। सर्व शब्द-प्रयोग उन परिमेष्ठियों के साथ भी किया जा सकता है।
__ 'सव्व' शब्द के वृत्तिकार ने १ सार्व, २ श्रव्य और ३ सव्य, ये तीन रूप बताकर पृथक्-पृथक् अर्थ भी बताए हैं। सार्व का एक अर्थ है-समानभाव से सबका हित करने वाले साधु, दूसरा अर्थ हैसब प्रकार के शुभ योगों या प्रशस्त कार्यों की साधना करने वाले साधु, तीसरा अर्थ है-सार्व अर्थात्अरिहन्त भगवान् के साधु अथवा अरिहन्त भगवान् की साधना-आराधना करने वाले साधु या एकान्तवादी मिथ्यामतों का निराकरण करके सार्व यानी अनेकान्तवादी आर्हतमत की प्रतिष्ठा करने वाले साधु सार्वसाधु हैं।
__ 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पाठ का विशेष तात्पर्य-इस पाठ के अनुसार प्रसंगवशात् सर्व शब्द यहाँ एकदेशीय सम्पूर्णता के अर्थ में मान कर इसका अर्थ किया जाता है-ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य लोक के विद्यमान सर्वसाधुओं को नमस्कार हो । लोकशब्द का प्रयोग करने से किसी गच्छ, सम्प्रदाय, या प्रान्तविशेष की संकुचितता को अवकाश नहीं रहा। कुछ प्रतियों में 'लोए' पाठ नहीं है।
श्रव्यसाधु का अर्थ होता है- श्रवण करने योग्य शास्त्रवाक्यों में कुशलसाधु (न सुनने योग्य को नहीं सुनता) सव्यसाधु का अर्थ होता है-मोक्ष या संयम के अनुकूल (सव्य) कार्य करने में दक्ष।
पाँचों नमस्करणीय और मांगलिक कैसे?-अर्हन्त भगवान् इसलिए नमस्करणीय हैं कि उन्होंने आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूप शक्तियों को रोकने वाले घातीकर्मों को सर्वथा निर्मूल कर दिया है, वे सर्वज्ञतालाभ करके संसार के सभी जीवों को कर्मों के बन्धन से मुक्ति पाने का मार्ग बताने एवं कर्मों से मुक्ति दिलाने वाले, परम उपकारी होने से नमस्करणीय हैं एवं उनको किया हुआ नमस्कार जीवन के लिए मंगलकारक होता है। सिद्ध भगवान के ज्ञान, दर्शन, चारित्र सुख और वीर्य आदि गुण सदा शाश्वत और अनन्त हैं। उन्हें नमस्कार करने से व्यक्ति को अपनी आत्मा के निजी गुणों एवं शुद्ध स्वरूप का भान एवं स्मरण होता है, गुणों को पूर्णरूप से प्रकट करने की एवं आत्मशोधन की, आत्मबल प्रकट करने की प्रेरणा मिलती है, अतः सिद्ध भगवान् संसारी आत्माओं के लिए नमस्करणीय एवं सदैव मंगलकारक हैं। आचार्य को नमस्कार इसलिए किया जाता है वे स्वयं आचारपालन में दक्ष होने के साथ-साथ दूसरों के आचारपालन का ध्यान रखते हैं और संघ को ज्ञान-दर्शन-चारित्र में स्थिर रखते हैं। इस महान् उपकार के कारण तथा ज्ञानादि मंगल प्राप्त करने के कारण आचार्य नमस्करणीय . (क) साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिमोंक्षमिति साधवः। समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति साधवः॥
(ख) निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो। समया सव्वभूएसु, तम्हा ते भावसाहुणो। (ग). असहाए सहायत्तं करेंति मे संयमं करेंतस्स। एएण कारणेणं णमामिऽहं सव्वसाहणं॥ (घ) सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वाः सार्वस्य वाऽर्हतः साधवः सार्वसाधवः। सर्वान्शुभयोगान् साधयन्ति....।
- भवगती वृत्ति पत्रांक ३ (च) लोके मनुष्यलोके, न तु गच्छन्ति, ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नमः-भगवती वृत्ति पत्रांक ४ (छ) भगवती वृत्ति पत्रांक ५