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प्रथम शतक : उद्देशक-१] एवं मांगलिक हैं। संघ में ज्ञानबल न हो तो अनेक विपरीत और अहितकर कार्य हो जाते हैं। उपाध्याय संघ में ज्ञानबल को सुदृढ़ बनाते हैं। शास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक ज्ञान उपाध्याय की कृपा से प्राप्त होता है, इसलिए उपाध्याय महान् उपकारी होने से नमस्करणीय एवं मंगलकारक हैं। मानव के सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ एवं परमसाधना के ध्येयस्वरूप मोक्ष की साधना-संयम साधना-में असहाय, अनभिज्ञ एवं दुर्बल को सहायता देने वाले साधु निराधार के आधार, असहाय के सहायक के नाते परम उपकारी, नमस्करणीय एवं मंगलफलदायक होते हैं। अरिहंत तीर्थंकर विशेष समय में केवल २४ होते हैं, आचार्य भी सीमित संख्या में होते हैं, अतः उनका लाभ सर्वसाधारण को सर्वक्षेत्रकाल में नहीं मिल सकता, साधु-साध्वी ही ऐसे हैं, जिनका लाभ सर्वसाधारण को सर्वक्षेत्रकाल में मिल सकता है। पाँचों कोटि के परमषेष्ठी को नमस्कार करने का फल एक समान नहीं है, इसलिए 'सव्वसाहूणं' एक पद से या 'नमो सव्व सिद्धाणं व नमो सव्वसाहूणं' इन दो पदों से कार्य नहीं हो सकता। अत: पाँच ही कोटि के परमेष्ठीजनों को नमस्कार-मंगल यहां किया गया है।
द्वितीयमंगलाचरण-ब्राह्मी लिपिको नमस्कार-क्यों और कैसे ?- अक्षर विन्यासरूप अर्थात्-लिपिबद्ध श्रुत द्रव्यश्रुत है; लिपि लिखे जाने वाले अक्षरसमूह का नाम है। भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्रह्मी को दाहिने हाथ से लिखने के रूप में जो लिपि सिखाई, वह ब्राह्मीलिपि कहलाती है। ब्राह्मीलिपि को नमस्कार करने के सम्बन्ध में तीन प्रश्न उठते हैं-(१) लिपि अक्षरस्थापनारूप होने से उसे नमस्कार करना द्रव्यमंगल है, जो कि एकान्तमंगलरूप न होने से यहाँ कैसे उपादेय हो सकता है? (२) गणधरों ने सूत्र को लिपिबद्ध नहीं किया, ऐसी स्थिति में उन्होंने लिपि को नमस्कार क्यों किया? (३) प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, फिर शास्त्र के लिए यह मंगल क्यों किया गया? इनका क्रमशः समाधान यों है-प्राचीनकाल में शास्त्र को कण्ठस्थ करने की परम्परा थी, लिपिबद्ध करने की नहीं, ऐसी स्थिति में लिपि को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसका आशय वृत्तिकार स्पष्ट करते हैं कि यह नमस्कार प्राचीनकालिक लोगों के लिए नहीं, आधुनिक लोगों के लिए है। इससे यह भी सिद्ध है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है, यह नमस्कार शास्त्र को लिपिबद्ध करने वाले किसी परम्परानुगामी द्वारा किया गया है। अक्षरस्थापनारूप लिपि अपने आप में स्वतः नमस्करणीय नहीं होती, ऐसा होता तो लाटी, यवनी, तुर्की, राक्षसी आदि प्रत्येक लिपि नमस्करणीय होती, परन्तु यहाँ ब्राह्मीलिपि ही नमस्करणीय बताई है, उसका कारण है कि शास्त्र ब्राह्मीलिपि में लिपिबद्ध हो जाने के कारण वह लिपि आधुनिकजनों के लिए श्रुतज्ञान रूप भावमंगल को प्राप्त करने में अत्यन्त उपकारी है। द्रव्यश्रुत भावश्रुत का कारण. होने से संज्ञाअक्षररूप (ब्राह्मीलिपिरूप) द्रव्यश्रुत को भी मंगलरूप माना है। वस्तुतः यहाँ नमस्करणीय भावश्रुत ही है, वही पूज्य है। अथवा १. (क) नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमणभीतभूतानामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन्
परमोपकारित्वादिति। (ख) नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्ततथास्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्याना
मतीवोपकारहेतुत्वादिति। (ग) नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात्। (घ) नमस्यता चैषांसुसम्प्रदायाप्तजिनवचनाध्यापनतो विनययेन भव्यानामुकारित्वात्। (ङ) एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात्॥-भगवती वृत्ति पत्रांक ३-४