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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[ ९ 'आयरियाणं' पद के विशिष्ट अर्थ-वृत्तिकार ने आचार्य शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-(१) आ-मर्यादापूर्वक या मर्यादा के साथ जो भव्यजनों द्वारा, चार्य-सेवनीय हैं, आचार्य कहलाते हैं, (२) आचार्य वह है जो सूत्र का परमार्थज्ञाता, उत्तम लक्षणों से युक्त, गच्छ के मेढीभूत, गण को चिन्ता से मुक्त करने वाला एवं सूत्रार्थ का प्रतिपादक हो, (३) ज्ञानादि पंचाचारों का जो स्वयं आचरण करते हैं, दूसरों को आचरण कराते हैं, वे आचार्य हैं (४) जो (मुक्ति) दूत (आ+चार) की तरह हेयोपादेय के संघहिताहित के अन्वेषण करने में तत्पर हैं, वे आचार्य हैं।
'उवज्झायाणं' पद के विशिष्ट अर्थ-उपाध्याय शब्द के पांच अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं(१) जिनके पास आकर सूत्र का अध्ययन, सूत्रार्थ का स्मरण एवं विशेष अर्थचिन्तन किया जाता है, (२) जो द्वादशांगी रूप स्वाध्याय का उपदेश करते हैं, (३) जिनके सान्निध्य (उपाधान) से श्रुत का या स्वाध्याय का अनायास ही आय-लाभ प्राप्त होता है, (४) आय का अर्थ है- इष्टफल। जिनकी सन्निधि (निकटता) ही इष्टफल का निमित्त-कारण हो, (५) आधि (मानसिक पीड़ा) का लाभ (आय) आध्याय है तथैव अधी' का अर्थ है-कुबुद्धि, उसकी आय अध्याय है, जिन्होंने आध्याय और अध्याय (कुबुद्धि या दुर्ध्यान) को उपहत – नष्ट कर दिया है, वे उपाध्याय कहलाते हैं।
'सव्वसाहूणं' पद के विशिष्ट अर्थ–साधु शब्द के भी वृत्तिकार ने तीन अर्थ बताए हैं- (१) ज्ञानादिशक्तियों के द्वारा जो मोक्ष की साधना करते हैं, (२) जो सर्वप्राणियों के प्रति समताभाव धारण करते हैं, किसी पर रागद्वेष नहीं रखते, निन्दक-प्रशंसक के प्रति समभाव रखते हैं, प्राणिमात्र को आत्मवत् समझते हैं, (३) जो संयम पालन करने वाले भव्य प्राणियों की मोक्षसाधना में सहायक बनते हैं, वे साधु कहलाते हैं।
साधु के साथ 'सर्व'विशेषण लगाने का प्रयोजन-जैसे अरिहन्तों और सिद्धों में स्वरूपतः समानता है, वैसी समानता साधुओं में नहीं होती। विभिन्न प्रकार की साधना के कारण साधुओं के अनेक अवान्तर भेद होते हैं। साधुत्व की दृष्टि से सब साधु समान हैं, इसलिए वन्दनीय हैं। सव्व' (सर्व) विशेष लगाने से सभी प्रकार के, सभी कोटि के साधुओं का ग्रहण हो जाता है, फिर चाहे वे सामयिकचारित्री हों, चाहे छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धिक,सूक्ष्मसम्परायी हों या यथाख्यातचारित्री, अथवा वह प्रमत्तसंयम हों या अप्रमत्तसंयत (सातवें से १४वें गुणस्थान तक के साधु) हों,या वे पुलाकादि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों में से कोई एक हों, अथवा वे जिनकल्पी, स्थविरकल्पी, प्रतिमाधारी, यथालन्दकल्पी या कल्पातीत हों, अथवा वे प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध या बुद्धबोधि में से किसी भी कोटि के हों, अथवा भरतक्षेत्र,
(क) भगवती वृत्ति पत्रांक ३ (ख) 'सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेढिभूओ य।
गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाइए आयरिओ॥' (ग) पंचविहं आयारं आयारमाणा तहा पयासंता।
आयारं देसंता आयरिया तेण वुच्वंति ॥-भ.वृ. ४ (क) भगवती वृत्ति पत्रांक ४ (ख) बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहे।
तं उवइसंति जम्हा उवज्झाया तेण वुच्चंति ॥ -भ.वृ. ४