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पंचम शतक : उद्देशक-६]
[४६५ गर्दा (जनता के समक्ष निन्दा) एंव अपमान करके, अमनोज्ञ और अप्रीतिकर अशन, पान, खादिम और स्वादिम (रूप चतुर्विध आहार) दे (प्रतिलाभित) करके। इस प्रकार (इन तीन कारणों से) जीव अशुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म बांधते हैं।
४. कहं णं भंते! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?
गोयमा! नो पाणे अतिवातित्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता, अन्नतरेणं मणुण्णेणं पीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति।
[४ प्र.] भगवन् ! जीव शुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म किन कारणों से बांधते हैं ?
[४ उ.] गौतम! प्राणिहिंसा न करने से, असत्य न बोलने से, और तथारूप श्रमण या माहन को वन्दना, नमस्कार यावत् पर्युपासना करके मनोज्ञ एवं प्रीतिकारक अशन, पान, खादिम और स्वादिम देने (प्रतिलाभित करने) से। इस प्रकार जीव (इन तीन कारणों से) शुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म बांधते हैं।
विवेचन अल्पायु और दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों का निरूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रमशः अल्पायु, दीर्घायु, अशुभ और शुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों पर प्रकाश डाला गया है।
अल्पायु और दीर्घायु का तथा उनके कारणों का रहस्य प्रथम सूत्र में अल्पायुबन्ध के कारण बतलाए गए हैं। यहाँ अल्प आयु, दीर्घ आयु की अपेक्षा से समझनी चाहिए, क्षुल्लकभवग्रहणरूप निगोद की आयु नहीं। अर्थात् प्रासुक-एषणीय आहारादि लेने वाले मुनि को अप्रासुक-अनेषणीय
आहारादि देने से जो अल्प आयु का बन्ध होना बताया गया है, उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि दीर्घायु की अपेक्षा जिसकी आयु थोड़ी है। जैनशास्त्र में पारंगत मुनि किसी सांसारिक ऋद्धि-सम्पत्तियुक्त भोगी पुरुष की अल्प आयु में मृत्यु सुनकर प्रायः कहते हैं—इस व्यक्ति ने पूर्व जन्मों में प्राणिवध आदि अशुभ कर्मों का आचरण किया होगा। अतः यहाँ अल्पायु का अर्थ-मानवदीर्घायु की अपेक्षा अल्प आयु पाना है।
इससे आगे के सूत्र में दीर्घायुबन्ध के कारणों का निरूपण किया गया है, उनको देखते हुए प्रतीत होता है, यह दीर्घायु भी पूर्ववत् अल्पायु की अपेक्षा दीर्घायु समझनी चाहिए, वह भी सुखरूप शुभ दीर्घायु ही यहाँ विवक्षित है, अशुभ दीर्घायु (कसाई, चोर आदि पापकर्म-परायण व्यक्ति की दीर्घायु) नहीं। क्योंकि इस सूत्र में उक्त दीर्घायु के तीन कारणों में से तीसरे कारण में अन्तर है-जैसे तथारूप श्रमण-माहन को प्रासुक एषणीय आहार देने से दीर्घायुरूप फल मिलता है। किन्तु आगे के दो सूत्रों में शुभ दीर्घायु और अशुभ दीर्घायुरूप फल के दो कारण पूर्व सूत्र निर्दिष्ट कारणों के समान ही हैं। तीसरे और चौथे सूत्र में क्रमशः तथारूप श्रमण-माहन को वन्दन-नमन-पर्युपासनापूर्वक मनोज्ञ-प्रीति-कर आहार देना शुभ दीर्घायु का और तारूप श्रमण-माहन की हीलना-निन्दा आदि करके उसे अमनोज्ञ एवं अप्रीतिकर आहार देना, अशुभ दीर्घायु का तीसरा कारण बताया गया है।
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २२६-२२७