________________
४६६ ]
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
इसके अतिरिक्त अल्प- आयु के जो दो प्रारम्भिक कारण- प्राणातिपात और मृषावाद बताए गए हैं, वे भी यहाँ सभी प्रकार के प्राणातिपात और मृषावाद नहीं लिए जाते, अपितु प्रसंगोपात्त तथारूप श्रमण को आहार देने के लिए आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार तैयार किया जाता है, उसमें जो प्राणातिपात होता है उसका, तथा वह दोषयुक्त आहार साधु को देने के लिए जो झूठ बोला जाता है कि यह हमने अपने लिए बनाया है, आपको तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिए; इत्यादि रूप से जो मृषावाद होता यहाँ ग्रहण किया गया है।
चूंकि आगे के अशुभ - दीर्घायु तथा शुभ-दीर्घायु के कारण बताने वाले दो सूत्रों में प्रासुक एषणीय तथा अप्रासुक अनेषणीय का उल्लेख नहीं है । वहाँ केवल प्रीतिकर या अप्रीतिकर आहार देने का उल्लेख है । इसलिए यहाँ जो प्रीतिपूर्वक मनोज्ञ आहार, अप्रासुक अनेषणीय दिया जाता है, उसे शुभ अल्पायु-बन्ध का कारण समझना चाहिए, अशुभ अल्पायुबन्ध का कारण नहीं ।
दूसरे सूत्र में दीर्घ- आयुबन्ध के कारणों का कथन है, वह भी शुभ दीर्घायु समझनी चाहिए जो जीवदया आदि धार्मिक कार्यों को करने से होती है। जैसे कि लोक में दीर्घायुष्क पुरुष को देखकर कहा जाता है, इसने पूर्वजन्म जीवदयादिरूप धर्मकृत्य किये होंगे। देवगति में अपेक्षाकृत शुभ दीर्घायु होती
है।
विक्रेता और क्रेता को विक्रेय माल से सम्बन्धित लगने वाली क्रियाएँ.
५. गाहावतिस्स णं भंते! भंडं विक्किणमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, तस्स णं भंते! तं भंड अणुगवेसमाणस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ ? पारिग्गहिया०, मायावत्तिया०, अपच्चक्खा०, मिच्छादंसण० ?
गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ, पारि०, माया०, अपच्च०; मिच्छादंसणकिरिया सिय कज्जति, सिय नो कज्जति । अह से भंडे अभिसमन्नागते भवति ततो से पच्छा सव्वाओ ताओ पयई भवंति ।
[५ प्र.] भगवन्! भाण्ड (किराने का सामान) बेचते हुए किसी गृहस्थ का वह किराने का माल कोई अपहरण कर (चुरा) ले, फिर उस किराने के समान की खोज करते हुए उस गृहस्थ को, हे भगवन्! क्या आरम्भिकी क्रिया लगती है, या पारिग्रहिकी क्रिया लगती है ? अथवा मायाप्रत्ययिकी अप्रत्याख्यानिकी या मिथ्यादर्शन- प्रत्ययिकी क्रिया लगती है ?
१. 'तथाहि प्राणातिपाताधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त' यथा— साधो ! स्वार्थं सिद्धमिदं भक्तादि, कल्पनीयं वा, नाशंका
कार्य्या स्थानांग टीका
(क) अणुव्वय महव्वएहिं य बालतवो अकामणिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ, सम्मदिट्ठीय जो जीवो । -भगवती० टीका, पत्रांक २२६
२.
३.
(ख) समणोवासगस्स तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो णिज्जइ कज्जइ । —भगवतीसूत्र, पत्रांक २२७ 'मिच्छदिट्ठी महारंभपरिग्गहो तिव्वलोभनिस्सीलो । निरयाउयं निबंधइ, पावमई रोद्दपरिणामो ॥'
-भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २२७ में उद्धृत