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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (दो अयन का एक संवत्सर), जए (युग-पांच संवत्सर का एक यग).वाससतं (बीस यगों का एक वर्षशत), वाससहस्सं (दश वर्षशत का एक वर्ष-सहस्त्र हजार), वाससतसहस्सं (१०० वर्षसहस्रों का एक वर्षशतसहस्र-एक लाख वर्ष), पुव्वंग (८४ लाख वर्षों का एक पूर्वांग) पुव्वं (८४ लाख को ८४ लाख से गुणा करने से जितने वर्ष हो, उतने वर्षों का एक पूर्व), तुडियंगं (एक पूर्व को ८४ लाख से गुणा करने से एक त्रुटितांग), तुडिए (एक त्रुटितांग को ८४ लाख से गुणा करने पर एक त्रुटित), इसी प्रकार पूर्व-पूर्व की राशि को ८४ लाख से गुणा करने पर उत्तर-उत्तर की समयराशि क्रमशः बनती है। वह इस प्रकार है—अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका (१९४ अंकों की संख्या), पल्योपम और सागरोपम (ये दो गणना के विषय नहीं हैं, उपमा के विषय हैं, उन्हें उपमाकाल कहते हैं।)
अवसर्पिणीकाल—जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर हीन (न्यून) होते जाते हैं, आयु और अवगाहना घटती जाती है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम का क्रमशः ह्रास होता जाता है, पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं एवं शुभ भावों में कमी और अशुभभावों में वृद्धि होती जाती है, उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं। यह काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। इसके ६ विभाग (आरे) होते हैं। एक प्रकार से यह अर्द्धकालचक्र है। अवसर्पिणीकाल का प्रथम विभाग अर्थात् पहले आरे के लिए कहा गया है-'पढमा ओसप्पिणी।'
__ उत्सर्पिणीकाल—जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर अधिकाधिक शुभ होते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है; उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है तथा पुद्गलों के वर्णादि शुभ होते जाते हैं, अशुभतम भाव क्रमश: अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते हैं एवं उच्चतम अवस्था आ जाती है, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं। यह काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। इसके भी ६ विभाग (आरे) होते हैं, यह भी अर्द्धकालचक्र कहलाता है। लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पुष्करार्द्ध में सूर्य के उदय-अस्त तथा दिवसरात्रि का विचार
२२. [१] लवणे णं भंते! समुद्दे सूरिया उदीचि-पाईणमुग्गच्छ जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वता भणिता सच्चेव सव्वा अपरिसेसिता लवणसमुदस्स वि भाणितव्वा नवरं अभिलावो इमो जाणितव्वो—'जता णं भंते! लवणे समुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवति तदा णं लवणे समुद्दे पुरथिमपच्चत्थिमेणं राती भवति?' एतेणं अभिलावेणं नेतव्वं
[२२-१ प्र.] भगवन्! लवणसमुद्र में सूर्य ईशानकोण में उदय हो कर अग्निकोण में जाते हैं ?; इत्यादि सारा प्रश्न पूछना चाहिए।
[२२-१ उ.] गौतम! जम्बूद्वीप में सूर्यों के सम्बन्ध में जो वक्तव्यता कही गई है, वह सम्पूर्ण
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१. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २११
(ख) भवगतीसूत्रम् (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. १५५.