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________________ ४१२] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अभिलावो तहेव हेमंताण वि २०, गिम्हाण वि ३०, भाणियव्वो जाव उऊ । एवं एते तिन्नि वि । एतेसिं तीसं आलावगा भाणियव्वा । [१७ प्र.] भगवन्! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में हेमन्तऋतु का प्रथम समय होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी हेमन्तऋतु का प्रथम समय होता है; और जब उत्तरार्द्ध में हेमन्तऋतु का प्रथम समय होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व-पश्चिम में हेमन्तऋतु का प्रथम समय अनन्तर पुरस्कृत समय में होता है ? इत्यादि प्रश्न है । [१७ उ.] हे गौतम! इस विषय का सारा वर्णन वर्षाऋतु के ( अभिलाप) कथन के समान जान लेना चाहिए । इसी तरह ग्रीष्मऋतु का भी वर्णन कह देना चाहिए। हेमन्तऋतु और ग्रीष्मऋतु के प्रथम समय की तरह उनकी प्रथम आवलिका, यावत् ऋतुपर्यन्त सारा वर्णन कहना चाहिए । इस प्रकार वर्षाऋतु, हेमन्तऋतु और ग्रीष्मऋतु; इन तीनों का एक सरीखा वर्णन है। इसलिए इन तीनों के तीस आलापक होते हैं। १८. जया णं भंते! जंबु० मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जति तदा उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ ? जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियव्वो जाव अतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवति । [१८ प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से दक्षिणार्द्ध में जब प्रथम ' अयन' होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम 'अयन' होता है ? [१८ उ.] गौतम ! जिस प्रकार समय के विषय में आलापक कहा, उसी प्रकार 'अयन' के विषय में भी कहना चाहिए; यावत् उसका प्रथम समय अनन्तरपश्चात्कृत समय में होता है; इत्यादि सारा वर्णन कहना चाहिए । १९. जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणियव्वो, जुएण वि, वाससतेण वि, वाससहस्सेण वि, वाससतसहस्सेण वि, पुव्वंगेण वि, पुव्वेण वि, तुडियंगेण वि, तुडिएण वि एवं पुव्वे २, तुडिए २, अड्डे २, अववे २, हूहूए २, उप्पले २, पउमे २, नलिणे २, अत्थणिउरे २, अउए २, उए २, पउए २, चूलिया २, सीसपहेलिया २, पलिओवमेण वि, सायरोवमेण वि, भाणितव्वो । [१९] जिस प्रकार 'अयन' के सम्बन्ध में कहा; उसी प्रकार संवत्सर के विषय में भी कहना चाहिए; तथैव युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनूपुरांग, अर्थनूपुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम और सागरोपम; ( इन सब ) के सम्बन्ध में भी ( पूर्वोक्त प्रकार से ) कहना चाहिए । २०. जदा णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जति तदा णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ ? जता णं उत्तरड्ढे वि पडिज्जइ तदा णं जंबुद्दीवे
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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