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तृतीय शतक : उद्देशक- ७]
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नालों में श्मशान, पर्वतगृह गुफा (कन्दरा), शान्तिगृह, शैलोपस्थान ( पर्वत को खोद कर बनाए गए सभा-स्थान), भवनगृह (निवासगृह) इत्यादि स्थानों में गाड़ कर रखा हुआ धन; ये सब पदार्थ देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज से अथवा उसके वैश्रमणकायिक देवो से अज्ञात, अदृष्ट (परोक्ष), अश्रुत, अविस्मृत और अविज्ञात नहीं हैं।
[४] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चाभिण्णाया होत्था, तं जहा— पुण्णभद्दे माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे चक्करक्खे पुण्णरक्खे सव्वाणे सव्वजसे सव्वकामसमिद्धे अमोहे असंगे ।
[७-४] देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल वैश्रमण महाराज के ये देव अपत्यरूप से अभीष्ट हैं, वे इस प्रकार हैं—पूर्णभद्र, माणिभद्र, शालिभद्र, सुमनोभद्र, चक्ररक्ष, पूर्णरक्ष, सद्वान, सर्वयश, सर्वकामसमृद्ध, अमोघ और असंग ।
[५] सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो दो पलिओवमाणि ठिती पण्णत्ता । अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता। एमहिड्डीए जाव वेसमणे
महाराया ।
सेवं भंते! सेवं भंते! ति० ।
॥ तइयसते : सत्तमो उद्देसओ समत्तो ॥
[७-५] देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल — वैश्रमण महाराज की स्थिति दो पल्योपम की है, और उनके अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है ।
इस प्रकार वैश्रमण महाराज बड़ी ऋद्धि वाला यावत् महाप्रभाव वाला है।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है;' यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे ।
सूत्र
विवेचन वैश्रमण लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन प्रस्तुत ७वें में शास्त्रकार ने वैश्रमण लोकपालदेव के विमानों की अवस्थिति, उसकी लम्बाई-चौड़ाई - ऊँचाई आदि परिमाण, वैश्रमण लोकपाल की राजधानी, प्रासाद आदि का तथा वैश्रमण महाराज के आज्ञानुवर्ती भक्ति-सेवा-कार्यभारवहनादि कर्ता देवों का, मेरु पर्वत के दक्षिण में होने वाले धनादि से सम्बन्धित कार्यों की समस्त जानकारी का एवं वैश्रमण महाराज के अपत्यरूप से माने हुए देवों का तथा उसकी तथा उसके अपत्यदेवों की स्थिति आदि का समस्त निरूपण किया गया है।
वैश्रमणदेव को लोक में कुबेर, धनद एवं धन का देवता कहते हैं । धन, धान्य, निधि, भण्डार आदि सब इसी लोकपाल के अधीन रहते हैं ।
कठिन शब्दों की व्याख्या— हिरण्णवासा = झरमर झरमर बरसती हुई घड़े हुए सोने की या चाँदी की वर्षा तथा हिरण्णवुट्ठी—तेजी से बरसती हुई घड़े हुए सोने या चांदी की वर्षा वृष्टि कहलाती है। यही वर्षा और वृष्टि में अन्तर है । सुभिक्खा-दुभिक्खा-सुकाल हो या दुष्काल । 'निहीति वा निहाणाति वा ' = लाख रुपये अथवा उससे भी अधिक धन का एक जगह संग्रह करना निधि है, और